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कन्नड जैन साहित्य का इतिहास
स्याएं तथा उनकी पूर्तियाँ संगृहीत हैं । कवि बाहुबलि ( लगभग १५६० ई० ) ने अपने 'नागकुमारचरित' में दोर ( बल्लाल ) - सभा की मंगललक्ष्मी, शुभगुणचरिता, अभिनव वाग्देवी आदि सुन्दर विशेषणों द्वारा स्तुति की है। इससे ज्ञात होता है कि कंति द्वारसमुद्र के बल्लालराय की सभा में पण्डिता रही होंगी । अभिनववाग्देवी इसकी उपाधि थी । इस कवयित्री के बारे में देवचन्द्र ने अपनी 'राजावली - कथे' में इस प्रकार लिखा है
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'दोरराय द्वारसमुद्र नामक एक विशाल जलाशय का निर्माण कराकर तथा धर्मचन्द्र नामक एक ब्राह्मण को अपना मन्त्री नियुक्तकर सुचारुरूप से वहाँ का राज्य कार्य करता था । मन्त्रिपुत्र स्वयं अध्यापन कार्य सम्हालता हुआ बालकों को छन्द, अलंकार, व्याकरण और काव्य आदि सभी विषयों को पढ़ाया करता था । अध्यापक मन्दबुद्धिवाले बालकों के मति - प्रकाशनार्थ 'ज्योतिष्मती' नामक बुद्धिवर्धक एक विशिष्ट तैल तैयार करके उसमें से मन्दबुद्धिवाले बालकों को अर्ध बिन्दु के परिमाण से दिया करता था । तैलसेवनविधि से अनभिज्ञ कंति ने प्रायः अधिक लाभ के लोभ से गुरुजी की अनुपस्थिति में पात्रस्थ पूरे तैल को एक ही बार में पी डाला ।
फलतः औषधजन्य असह्य गर्मी को न सहन कर तुरन्त वह दौड़कर कुए में गिर गई। वहाँ पर कंठप्रमाण पानी में अधिक समय तक रहने से जब तैल की गर्मी कम हुई और वह कुएं में खड़ी होकर सुन्दर कविताएँ बनाने लगी तब उस अपूर्व घटना को देखकर सभी आश्चर्य में पड़ गए। बह विचित्र समाचार तुरन्त दोरराय के आस्थान ( सभा मण्डप ) में भी पहुंच गया । इस बात की वास्तविकता का पता लगाने के लिए राजा दोर ने अपने आस्थान के ख्यातिप्राप्त महाकवि अभिनवपम्प को भेजा । उभय भाषा कवि पम्प ने घटनास्थल पर पहुंचकर कंति से एक दो नहीं, सैकड़ों प्रश्न किये । कवयित्री कंति ने भी सभी प्रश्नों को समुचित उत्तर देकर सुयोग्य परीक्षक महाकवि को चकित कर दिया। बाद में महाकवि पम्प ने कंति को राजदरबार में पहुंचाया । दरबार में दोर ने इसकी कविता से प्रसन्न होकर कंति को अपने आस्थान की कवीश्वरी घोषित किया और कवयित्री को अपने आस्थान में ही रखा ।
सम्भवतः कंति को 'अभिनव वाग्देवी' की उपाधि बल्लालराय दोर के द्वारा ही प्रदान की गई थी । यदि अभिनवपम्प द्वारा कंति को समस्याएं देने
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