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पंपयुग
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की बात यथार्थ है तो कंति, पम्प की समसामयिक सिद्ध होती है । अभिनवपम्प का समय लगभग ११०० ई० है । उपर्युक्त दोर भी द्वारसमुद्र का तत्कालीन शासक बल्लाल ( ई० सन् ११०० - ११०६ ) ही होना चाहिए । मालूम होता है कि इसकी सभा में पंप, कंति आदि सुयोग्य कवि अवश्य मौजूद थे ।
आज तक के अन्वेषण से कन्नड कवयित्रियों में कंति ही प्रथम कवयित्री है । कुछ फुटकर उल्लेखों से ज्ञात होता है कि महाकवि पंप और कंति में बराबर संवाद चलता रहा । साथ ही साथ यह भी कहा जाता है कि किसी प्रकरण में एक रोज पंप ने कंति के समक्ष यह प्रण कर लिया कि जो भी हो किसी दिन मैं तुम से अवश्य अपनी स्तुति करा लूँगा । इस जटिल समस्या को हल करने के लिए अभिनवपंप ने एक रोज कंति के पास अपनी मृत्यु की दुःखद खबर भेजी । इस खबर से कवयित्री कंति बहुत दु:खी हुई और दौड़ती हुई पंप के घर पहुँचकर 'कविराय, कविपितामह, कविकंठाभरण, कविशिखा पम्प' आदि पद्यों द्वारा कंति ने महाकवि पम्प की मुक्तकंठ से प्रशंसा की तब पम्प उठकर बाहर आया और प्रसन्न होकर कंति से कहा कि 'आज मेरा पूर्व प्रण पूरा हो गया । कंति भी महाकवि को सामने पाकर बड़ी प्रसन्न हुई । 'कंतिहंपनसमस्येगळ' नाम के जो पद्य इस समय उपलब्ध होते हैं, वे साहित्य की दृष्टि से भी सुन्दर हैं । कवयित्री कंति के सम्बन्ध में इससे अन्य कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है ।
नयसेन
इन्होंने 'धर्मामृत' की रचना की है । नागवर्म ( लगभग ११४५ ई० ) ने अपने 'भाषाभूषण' के 'दीर्घोक्तिर्नयसेनस्य' नामक सूत्र ( ७२ ) में उपर्युक्त नयसेन के मतानुसार सम्बोधन में दीर्घं को स्वीकार किया है । इससे सिद्ध होता है कि नयसेन ने एक कन्नड व्याकरण भी रचा था । पर अभीतक उसका पता नहीं चला है । कवि की कृतियों में एकमात्र धर्मामृत ही उपलब्ध है । श्री नरसिंहाचार्य के अनुसार नयसेन ने इस धर्मामृत को वर्तमान धारवार जिलान्तर्गत मुळ गुन्द में रचा था ।
श्री आर० नरसिंहाचार्य ने अपने 'कविचरिते' में 'गिरिशिखिवायुमार्गशशिसंख्ये' नामक धर्मामृत के इस असमग्र पद्य के आधार पर इस ग्रंथ का रचनाकाल शा० श० १०३७ बतलाया है । परन्तु उन्होंने शंका प्रकट की है
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