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कन्नड जैन साहित्य का इतिहास पंपरामायण में सीता द्वारा अग्निप्रवेश की घटना राम-रावण युद्ध के बाद तथा अयोध्या जाने के पूर्व घटित नहीं होती है प्रत्युत लव-कुश के जन्म के बाद घटित होती है। वस्तुतः अग्निप्रवेश के बाद विरक्त हो, वह जिनदीक्षा ही ले लेती है। विरक्ति का कारण एकमात्र उस पर लगाया गया मिथ्या लांछन ही था। लक्ष्मण का अद्भुत भ्रातृप्रेम, सीता का असीम पति प्रेम, वैभवशाली सुन्दर और शूरवीर होने पर भी परदाराभिकांक्षी रावण का सीता द्वारा तिरस्कार, अहिंसादि व्रतों का मार्मिक वर्णन, बन्दर, हाथी आदि पशुओं का धर्म पर अचल प्रेम, मुनि-आर्यिका आदि त्यागी-तपस्वियों के आदर्श चरित्रों का सजीव वर्णन आदि प्रसंग सामान्य जनता पर भी अपना गहरा प्रभाव डालते हैं।
पंपरामायण में विज्ञ पाठक रावण को मानवोचित दया, क्षमा, सौजन्य, गाम्भीर्य एवं औदार्य आदि महान गुणों से युक्त पायेंगे । जैन रामायण में ही नहीं, अपितु वाल्मीकिरामायण में भी कई स्थानों पर रावण को 'महात्मा' शब्द से सम्बोधित किया गया है ( सुन्दरकाण्ड, सर्ग ५,१०,११) इतना ही नहीं, वाल्मीकि रामायण से यह भी सिद्ध होता है कि रावण की राजधानी में घर-घर में वेदपाठी विद्वान् थे और प्रत्येक घर में हवन कुंड था। धर्मात्मा रावण के महलों में कभी कोई भी अशुभ कार्य नहीं किया जाता था, अपितु वेदप्रतिपादित शुभ कर्म ही किये जाते थे (सुन्दरकाण्ड, सर्ग ६ तथा १८)।'
पंपरामायण के निम्नलिखित प्रकरणों का वर्णन विशेष उल्लेखनीय है(१) स्वयम्बर के उपरान्त सीता को देखने के कुतूहल से नारद मुनि रूप में आकाश मार्ग से मिथिला आते हैं और अवसर पाकर अन्तःपुर में प्रवेश कर जाते हैं। छद्मवेशी नारद को सीता अचानक देख लेती है और उनके विचित्र रूप से भयभीत हो, वह जोर से चिल्ला उठती है । इस दयनीय आवाज को सुनकर अन्त:पुर की रक्षिकाएँ दौड़ आती हैं। तब तक नारद अपने अनुचित व्यवहार के लिए स्वयं लज्जित होकर, वहाँ से वापिस चल पड़ते हैं। यह वर्णन स्वाभाविक सुन्दर एवं बहुत ही हृदयग्राही है। इसका अनुभव एक भुक्तभोगी ही कर सकता है। इस वर्णन में सत्य, सौन्दर्य एवं चातुर्य आदि सभी अन्तहित हैं (पंपरामायण, आश्वास ४, पद्य ८०-८८)।
१. "जैन सिद्धान्तभास्कर", भाग ६, किरण १ में प्रकाशित 'जैन रामायण का रावण' शीर्षक मेरा लेख देखें।
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