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पंपयुग माता-पिता की आर्त्तवाणी का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उसका एक भी भाई जीवित नहीं रहा। उधर धर्मराज की यह प्रतिज्ञा है कि मेरा कोई भाई मारा जावेगा तो मै आग में कूद पडूगा । दुर्योधन की बड़ी दयनीय दशा है । वह माता-पिता से कहता है, "माप मेरे जीवित रहने की बात पर कोई भरोसा न रखें । अपने भाइयों पर जो बीता है वही मेरे लिए भी तय मानिये।"
कभी-कभी वह बड़ा उत्तेजित हो जाता है और कहने लगता है--"प्यारे भाई कर्ण ! अर्जुन से तुम्हें मैं छीन लूगा । प्यारे भाई दुःशासन ! भीम का पेट चीरकर तुम्हें पा लूगा। इन दोनों का शिकार कर लू तो पीछे निर्दोषी धर्मराज के साथ जीवन बिताने की समस्या अपने आप हल हो जायगी।" दुःख की तीव्रता उसके मुंह से कहला देती है, "क्या मैं ही आपका पुत्र हैं, धर्मराज नहीं ? आप उसके साथ जीवनयापन कीजिये, मेरी कोई चिन्ता न कीजिये।" दुर्योधन के मन की उदारता का यह सुन्दर प्रभाव है।
बड़ी धूमधाम से चलनेवाले दुर्योधन को एकाकी और उदास आते देख भीष्मपितामह द्रवित होते हैं। पितामह इस अवस्था में समझौते की चर्चा छेड़ते हैं । दुर्योधन को प्रस्ताव जंचता नहीं है । वह पितामह से यह जानने के लिए उत्सुक है कि युद्ध में शत्रु को परास्त कैसे किया जाय । वह पितामह से निवेदन करता है, “मैं राज्य के लिए लालायित नहीं हूँ। मैं प्रण का पालन करने के लिए अधीर हूँ। पाण्डवों के साथ मैं राज्य का उपभोग नहीं कर सकता । यह राज्य उस दशा में श्मशान से भिन्न नहीं होगा। कर्ण की हत्या के लिए उत्तरादायी यह राज्य भोगने योग्य नहीं है। मैं किसके लिए यह राज्य सँभालू ? न आप हैं, न द्रोणाचार्य रहे, न कर्ण, न दुःशासन ही है। कौन मेरा वैभव देखकर प्रसन्न होगा ? इतना सुनकर भीष्म निरुत्तर हो जाते हैं।
पितामह दुर्योधन को सलाह देते हैं कि वैशम्पायन सरोवर में सारा दिन बिताकर दूसरे दिन बलराम के साथ मिलकर लड़ाई जारी रखी जाय । दुर्योधन यह सलाह मानकर चला जाता है। परन्तु बार-बार समझौते की चर्चा सुनकर वह बड़ा खिन्न होता है । वह बड़ों की सलाह मानकर सरोवर में रह तो जाता है। किन्तु भीम की ललकार सुनते ही सर्पध्वजी दुर्योधन रोष के मारे जल में रहने पर भी उबलने लगा। प्रलयकालीन रुद्र की भांति वह धरती का अन्तर भेदते हुए बाहर निकल पड़ा और भीम से जमकर लड़ा तथा स्वर्ग सिधारा । इस प्रकार गदायुद्ध सत्याश्रय का स्तुतिगायन तो है ही, दुर्योधन की
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