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कन्नड जैन साहित्य का इतिहास रत्न' ये पांच अक्षर खुदे मिलते हैं। ऐसी किंवदन्ती है कि रन्न ने ही इन अक्षरों को खोदा है। यह बहुत संभव है क्योंकि महाकवि रन्न श्रवणबेळगोळ बराबर जाता रहा। चक्रवर्ती के योग्य कोश, कंठिका, श्वेतपत्र, सिंहासन आदि कविचक्रवर्ती रन्न को अपने आश्रयदाता सत्याश्रय से सानन्द प्राप्त था। नागचन्द्र (ई० ११००), नयसेन (ई० १११२), पाव (ई० १२०५), मधुर (ई० १३८५) और मंगरस इन कवियों ने रन्न की बड़ी प्रशंसा की है।
रन्न की दो प्रधान रचनाएँ हैं। एक 'अजितपुराण' (ई० ९९३ ) तथा दूसरा 'साहसभीमविजय' या 'गदायुद्ध'। अजितपुराण द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथ की पुनीत गाथा है। यह २२ आश्वास का चम्पूकाव्य है। इसमें व्यर्थ का वृत्त नहीं आया है। इसकी रचना महाकवि रन्न ने अत्तिमब्बे की प्रेरणा से की। ग्रंथ में अत्तिमब्बे का इतिवृत्त विस्तार से देते हुए उसकी दानशीलता का गुणगान किया गया है। इसे 'काव्यरत्न' या 'पुराणतिलक' भी कहा गया है। इसमें भवावलियों की जटिलता नहीं है। चूंकि यह एक जैन पुराण काव्य है, इसलिए लौकिक काव्य गदायुद्ध की तरह पात्रनिरूपण, सन्निवेशरचना आदि में कवि स्वतंत्र नहीं है। फिर भी भक्ति, ज्ञान और वैराग्य के पावन चित्रण के द्वारा रन्न ने अपने अद्भुत कविता-सामर्थ्य को सुन्दर ढंग से व्यक्त किया है। शैली में सौंदर्य है। कवि उभय भाषाओं में पण्डित होता हुआ संगीत एवं नाट्यशास्त्र में भी प्रवीण मालूम होता है । एतदर्थ जिनशिशु का जन्माभिषेक आदि प्रसंग सर्वथा पठनीय हैं। अजित. पुराण के तिलकप्राय सन्निवेश के द्वितीयाश्वास में सुसीमानगर के राजा विमलवाहन का वैराग्य प्रकरण आदि कई मर्मस्पर्शी ऐसे स्थल हैं जो सहृदय पाठक को मोह लेने के लिए पर्याप्त हैं। अयोध्यानगरी से अजितनाथ तपस्या के लिए चल पड़ते हैं तो रनिवास में गहरा अवसाद छा जाता है और रनिवास की रानियां गुणनिधि, भुवनपूजित अजितनाथ का नाम रटते-रटते महल से बाहर आ जाती हैं। यह बड़ा करुणाप्रधान प्रसंग है। अपितु तीर्थकर के समकालीन सगरचक्रवर्ती का प्रकरण भी बड़ा तलस्पर्शी है ।
सगर के साठ हजार पुत्र थे। संतानमोह सगर की सबसे बड़ी दुर्बलता थी। सगर का यह मोह दूर कर संसार की असारता का उसे बोध हो, इस उद्देश्य से रन्न कवि ने एक नई उद्भावना की है। एक बार पिता के पास लड़के आये और काम करने की इच्छा प्रकट की। पिता बोले-जाओ, खाओ-- पिओ और मौज करो। लड़कों को पुरुषार्थहीन यह जीवन पसन्द न आया।
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