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पंपयुग
२१ भेन्द्र था। कवि के सहोदर दृढ़बाहु रेचण और मारथ्य थे। जविक एवं शांति उनकी पत्नी थीं। पुत्र का नाम राय और पुत्री का नाम अत्तिमब्वे था। रन्न के पूज्य गुरु आचार्य अजितसेन थे। इनका यह परिचय स्वरचित 'अजितपुराण' के १२वें आश्वास में मिलता है। महाकवि रन्न की प्रतिभा का विकास अतिमब्बे' और चाउण्डराय सदृश सामंत तथा माण्डलिकों के आश्रय में हुआ। अंत में तैलप चक्रवर्ती (ई० ९७३-९९७) और युवराज सत्याश्रय के आश्रय में रहते हुए उसके प्रभुत्व का सिक्का जम गया। इस बात को कवि रन्न ने स्वयं कहा है। ___ मालूम होता है कि महाकवि रन्न को कविरत्न, कविचक्रवर्ती, कविकुंजरांकुश, उभयकवि, कवितिलक आदि की उपाधियां प्राप्त थीं। इन्होंने अपने से पूर्व के कन्नड कवियों में कहाकवि पंप और पोन्न को स्मरण किया है। रन्न का कहना है कि कवियों में जैनधर्म को दीप्त करनेवाले पंप पोन्न और रन्न ये तीन ही 'रत्नत्रय' के नाम से विख्यात हैं। यह आत्मश्लाघा मात्र नहीं है, कवि की कविकर्म कुशलता का भी परिचायक है। अन्यत्र कवि कहता है कि . 'अपने को रत्न का पारखी मानने वाला शेषनाग के फण में विद्यमान अनर्घ्य रत्न को और कापसमीक्षक के नाते रन्न के बहुमूल्य काव्य-रत्न को परखने का दुस्साहस न करें।' कवि का दावा है कि 'इससे पूर्व कोई कवि वाग्देवी के भांडार की मुहर नहीं तोड़ सका था। रन्न ने ही अपनी सरस रचनाओं के द्वारा वाग्देवी के भांडार की मुहर तोड़ दी, अर्थात् सरस्वती की संपदा का स्वामी बना ।' कवि का यह कोई प्रलाप नहीं है। बल्कि उसकी अद्भुत काव्यसाधना का फल है।
महाकवि रन्न की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा लोकादित्य को प्राचीन राजधानी, वर्तमान धारवार जिलांतर्गत बंकापुर में आचार्य अजितसेन की देखरेख में हुई थी। कन्नड और संस्कृत दोनों में उस वक्त उपलब्ध सारे ग्रंथ रन्न को उपलब्ध थे । दानचितामणि अत्तिमब्बे और चाउण्डराय इन दोनों की कृपा से रन्न को पर्याप्त वैभव एवं यश प्राप्त हुआ। अंत में पूर्वोक्त चालुक्य नरेश तैलप एवं उसके सुपुत्र सत्याश्रय के आस्थान में वह विशेष सम्मानित हुआ। जैनों के प्रसिद्ध तीर्थ श्रवणबेळगोळ के छोटे पर्वत पर एक चट्टान है, जिस पर 'श्रीकवि
*इसके विषय में विशेष जानने के लिये 'चंदावाई अभिनन्दन ग्रंथ' में प्रकाशित 'दानचिन्तामणि अतिमन्ने' शीर्षक मेरा लेख देखें ।
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