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________________ १८ कन्नड जैन साहित्य का इतिहास स्वर्णराशि का संचय करनेवाले बन्दी और मागध आदि का अर्थाभाव दूर हो जाता था । ब्राह्मणवेषधारी देवराज को कवच-कुण्डल देने में भी उसे कोई संकोच नहीं हुआ था । कल्पना की समाहार शक्ति और भाषा की सामासिकता को कर्ण-प्रसंग के चित्रण में कवि ने सम्यक् अभिव्यक्ति प्रदान की है । लगा, गुरु परशुराम के क्रोध से शापग्रस्त कर्ण दुर्योधन का अन्तरंग साथी हुआ । कर्ण को दुर्योधन से फोड़ने के लिए श्रीकृष्ण ने बड़ी गहरी चाल चली । श्रीकृष्ण बोले, "प्यारे कर्ण ! दुर्योधन जानता है कि तू पाण्डवों का सबसे बड़ा भाई है । तुम दोनों शिकार खेलने साथ-साथ गये थे और दोनों उस समय सत्यतप ऋषि के आश्रम में पहुँचे थे । उस वक्त ऋषि ने सबसे पहले तुम्हारा ही सादर स्वागत किया था । दुर्योधन को यह व्यवहार बहुत बुरा उसने तुम्हें किसी काम पर बाहर भेज कर ऋषि से पूछा कि मेरे रहते हुए आपने पहले सूतपुत्र का सम्मान कैसे किया और यह कहाँ तक उचित है ? इस पर ऋषि ने तेरे जन्म रहस्य को उसे बता दिया । तब दुर्योधन बोला कि "अच्छा हुआ, कांटे से ही कांटे को निकालना होगा ।" ही, कर्ण श्रीकृष्ण की बातों में न आया । दुर्योधन से द्रोह करने को राजी न हुआ । सेनापति का पद सुशोभित करते हुए कर्ण शरशय्या पर लेटे हुए पितामह के पास जाता है। और उनके चरणों में प्रणाम करता है । साथ ही साथ उनसे क्षमायाचना करता है । कर्ण की स्वामिभक्ति से अभिभूत आर्य भीष्म कर्ण को भी अपना प्रपत्र सम्बोधित करते हैं । कवि ने कर्ण के पात्र निरूपण में बड़ा कौशल दिखाया है । यहाँ कवि अपने नायक को भी भूलकर कहता है कि भारत में आप किसी का स्मरण करना चाहते हैं तो अन्य किसी को याद मत कीजिये, एकनिष्ठ हो कर्ण का ही स्मरण कीजिये । कर्ण की समानता कौन कर सकता है । उसकी शूरता, सच्चाई और साहस आदि जनता में विख्यात हैं । कर्ण त्याग का तो प्रतिरूप ही है । कर्ण ग्रीक दुःखान्त नाटकों के नायक की याद दिलाता है । वनवास में बचपन और यौवन का सुनहला समय बितानेवाले महाकवि पंप को यदि कन्नड साहित्य का आदि और एकमात्र कवि माना गया है तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है । कविताचातुर्य, वर्णनसामर्थ्य, पात्रनिरूपण, रसपुष्टि, हिता हितमृदुवचन रूपी शैली, सुन्दर एवं मार्मिक कहावतें, देशाभिमान द्योतक, वाग्गुम्फन ये सब महाकवि पंप को कर्नाटक का सार्वभौम कवि घोषित करते हैं । पंप की गरिमा को पूर्ण रूप से व्यक्त करना सम्भव नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002100
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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