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________________ पंपयुग १७ है। अभेदरूपक का निर्वाह इसमें अथ से इति तक अविच्छिन्न रूप से हुआ है । इसीलिए कवि ने अपनी रचना को समस्त भारत कहा है। इस महाकाव्य से अरिकेसरी प्रसन्न हुआ और उसने कवि को अमित वैभव ही नहीं, धर्मपुर नाम का एक ग्राम भी सहर्ष प्रदान किया। कवि इस महान् ग्रन्थ की महिमा का कारण कुछ और बताता है । उसका कहना है कि छल में दुर्योधन, सत्य गुण में सूर्यपुत्र कर्ण, पराक्रम में भीम, बल में शल्य, औन्नत्य में भीष्म, धनुर्विद्या में द्रोण, साहस में अर्जुन और धर्मगुण में परिशुद्धात्मा धर्मराज ये सब महाभारत की महिमा के कारण हैं। इसीलिये मेरा यह 'भारत' लोक में समाहत है। पंप-भारत में श्रीकृष्ण का कोई ऊँचा स्थान नहीं है। इसमें अर्जुन का आदर सबसे बढ़कर है। अर्जुन श्रीकृष्ण से वीरोचित आदर्श का वर्णन इस प्रकार करता है, "हे कृष्ण ! जो आक्रमणकारी शत्रु-राजा रूपी विशाल वृक्ष की जड़े धरती से उखाड़कर आकाश में न फेंके, शरणागतों की रक्षा न करे, त्यागरूपी गुण की छाप न अंकित करे तो क्या वह मानव है ? वह मानव नहीं कीड़ा है।" यहाँ अर्जुन श्रीकृष्ण का कृपाकांक्षी नहीं है। दृष्टिकोण की यह भिन्नता ही इसे लौकिक काव्य घोषित करती है। अन्य पात्रों के साथ दुर्योधन और कर्ण जो मूल महाभारत में दुष्टचन्तुष्टय में गिने जाते हैं, इसमें इन दोनों का बड़ा सम्मान किया गया है। दुर्योधन कवि की दृष्टि में अभिमान धन है। वह अपनी बात का पक्का है एवं अपनी जिद पर अन्त तक अडिग रहा है। दुर्योधन प्रण पूरा करने के लिए एक ही पथ पर बराबर कदम बढ़ाता गया, न डरा, न घबराया। प्राण त्यागने के समय भी उसका प्रताप कम न हुआ। अब प्रतिनायक कर्ण का चित्रण देखिये । कवि इसे भी प्रेम, आदर तथा गौरव प्रदान करता है। विश्वसाहित्य में इसके जैसा अभागा दूसरा पात्र नहीं है। सूर्य का पुत्र, पृथा की कुक्षि में जन्मा यह वीर पाण्डवों का अग्रज होते हुए भी पैदा होते ही गंगा की धारा में बहा दिया गया और सूतपुत्र के यहां पाला-पोसा गया। परन्तु वह अपने धीरोदात्त गुण से वंचित न हुआ। यौवन में पदार्पण करते ही वह कहने लगा कि 'मेरा कोई विरोध न करे, जो भी सहायता चाहे मुझसे मांग ले। वह एक बार तीर प्रत्यञ्चा पर चढ़ा दे तो उसकी टंकार से ही प्रतापी शत्रु राजाओं पर बिजली टूट-सी पड़ती और वे भयभीत होकर धराशायी हो जाते । कर्ण सोना काट-काटकर देता जाता ती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002100
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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