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________________ कन्नड जैन साहित्य का इतिहास होकर बाहुबली भी अपना विजित साम्राज्य छोड़कर वन में तपस्या के लिये चल पड़े। मुक्तियात्रा पर निकला यह जीव जन्मजन्मान्तर के संस्कार से परिष्कृत होकर क्रम-क्रम से अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है। जीव की इस अलौकिक यात्रा के सोपान इस काव्य या पुराण में सुन्दर ढंग से वर्णित हैं। इस रचना में कवि ने काव्य के साथ-साथ धर्मोपदेश भी दिये हैं । जैन धर्म के निरूपण में यह पुराण काव्य पूर्ण सफल हुआ है । महाकवि पंप की दूसरी रचना विक्रमार्जुनविजय' एक लौकिक महाकाव्य है । इसमें कवि ने अपने आश्रयदाता चालुक्य नरेश अरिकेसरी का गुणगान किया है । अरिकेसरी राष्ट्रकूटों का सामन्त था। उसे सामन्त चूडामणि माना जाता था। अरिकेसरी के स्नेह की कृपा से पम्प को विपुल वैभव, यश एवं सम्मान मिला । पुराण में प्रतिपादित कर्ण दुर्योधन की और इतिहास में प्रतिपादित श्रीहर्ष बाण मित्रता का जो आदर्श था, वही पम्प-अरिकेसरी की मित्रता का आदर्श है। अरिकेसरी गुणार्णव कहलाए तो पंप 'कवितागुणार्णव' उपाधि से विभूषित हुए। पंप कलम तथा तलवार दोनों चलाने में निपुण थे । विक्रमार्जुन जैसी महान् कलाकृति के सम्बन्ध में विद्वानों की राय है कि कवि ने इस कुशलता से काव्य-रचना की है कि यह काव्य कन्नड साहित्य में अद्वितीय सिद्ध हुआ। इस तरह का काव्य रचनेवाले कवि विरल ही हैं। महाकवि पम्प की इस रचना में कथा की रोचकता तथा वर्णन की मनोहरता का परिपाक हुआ है। यह कवि के आत्मविश्वास का द्योतक है । रचना के आरम्भ में बड़ी नम्रता से कवि कहता है कि मैं व्यास मुनीन्द्र द्वारा निर्मित वचनामृतरूप अगाध समुद्र को तैरने निकला हूँ। हां, कवि व्यास होने का कोई मेरा दावा नहीं है । अन्त में पम्प विश्वास करता है कि मैं अथाह सागर तैरने में अवश्य सफल हुआ हूँ। इसलिए कवि की घोषणा है कि पूर्ववर्ती समस्त काव्य अपने भारत ( विक्रमार्जुन विजय ) तथा आदिपुराण के सामने फीके हैं । इस महाकाव्य के नायक अरिकेसरी हैं। कवि की मान्यता है कि अरि. केसरी महाभारत के अर्जुन के समान महाप्रतापी है और पूर्वकालीन राजाओं की अपेक्षा उसमें कई असाधारण गुण मौजूद हैं । अतः कवि ने आदि से अन्त तक अर्जुन के लिए प्रचलित सभी उपाधियों का व्यवहार अरिकेसरी के लिए किया १. विशेष जिज्ञासु 'कवि पंप का विक्रमार्जुनविजय' शीर्षक मेरा लेख देखें । जैन दर्शन, वर्ष २, अंक १३, १९३५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002100
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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