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चन्द्र कीर्ति
इनकी तीन छोटी रचनाएँ प्राप्त हैं । " सम्मेदशिखरमाहात्म्य ६४ श्लोकों का है तथा पद्मावती शृंगार वर्णन २४ कडवकों का । पहली रचना शक १७३७ (सन् १८१५ ) में और दूसरी इसके अगले वर्ष में पूर्ण हुई थी । इन दोनों में कवि के गुरु का नामोल्लेख नहीं है । फिर भी सम्भवतः ये वही चन्द्र कीर्ति हैं at रत्नकीति के शिष्य थे। इनकी एक अन्य रचना रविव्रतकथा में १७४ ओवी हैं । इसकी प्रशस्ति के अनुसार इनका पहला नाम अन्ताजी पन्त अवधूत था । कारंजा में ये रत्नकीर्ति के शिष्य हुए थे तथा बाद में विशालकीर्ति गुरु ने इन्हें मंडलाचार्य का पद दिया था ।
नागेन्द्रकीति
मराठी जैन साहित्य का इतिहास
ये लातूर के भट्टारक पद पर थे। इनके दस स्फुट पद प्राप्त हैं । दो पदों में चन्द्र कीर्ति का और दो में विशालकीर्ति का गुरु-रूप में उल्लेख है । एक पद में रामक्षेत्र ( रामटेक ) के शान्तिनाथ की और एक में देउलघाट के चन्द्रप्रभ की स्तुति है । सभी पद जिनभक्ति, गुरुभक्ति और वैराग्य भाव से परिपूर्ण हैं । 3 इनका समय उन्नीसवीं सदी का पूर्वार्ध -- सन् १८२५ के आस पास का है ।
दिलसुख
ये कारंजा के भट्टारक पद्मनन्दि के शिष्य थे । इससे इनका समय सन् १७९३ से १८२३ के आसपास निश्चित होता है । इनका स्वात्मविचार नामक गद्य ग्रन्थ उपलब्ध है । ४ संस्कृत तर्क-ग्रंथों की शैली में आत्मा सम्बन्धी विविध दर्शनों के विचारों की इसमें समीक्षा की गई है । पुरानी मराठी में तर्कशास्त्र का विस्तृत विवेचन इसी एक ग्रन्थ में मिलता है ।
१. प्रा० म०, पृष्ठ १०२ ।
२. इसकी हस्तलिखित प्रति अचलपुर में उपलब्ध हुई ।
P.
३. इसकी एक जीर्ण पोथी हमारे संग्रह में है । जिनपद्यरत्नावली नामक छोटी-सी पुस्तक में इनके कुछ पद छपे भी थे । किन्तु इसके प्रकाशक आदि का विवरण हमें नहीं मिल सका ।
४. प्रा० म०, पृष्ठ १०७ ।
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