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प्रारंभिक एवं मध्ययुगीन मराठी जैन साहित्य
२३१ गायन अनुकूल शब्द योजना के कारण मराठी जैन समाज में बहुत लोकप्रिय हुई हैं। दयासागर (द्वितीय)
इनकी एकमात्र रचना हनुमानपुराण शक १७३५ ( सन् १८१३ ) में पूर्ण हुई थी। ब्रह्मजिनदास के हनुमंतरास के आधार पर यह सात अध्यायों का पुराण लिखा गया है, ऐसा प्रशस्ति में कहा गया है। अंजना-पवनंजय की प्रेम और विरह की कथा तथा राम-रावण युद्ध में वीर हनुमान के पराक्रमों का कवि ने रोचक भाषा में वर्णन किया है ।२ रत्नकीति
ये कारंजा के भट्टारक सिद्धसेन के शिष्य थे। अमरावती नगर में संवत् १८६९ ( सन् १८१३ ) में ४० अध्यायों के विस्तृत उपदेशरत्नमाला ग्रन्थ की रचना इन्होंने की थी। सकलभूषण की संस्कृत रचना का यह विविध वृत्तों में तथा विविध दृष्टान्तों द्वारा सुशोभित किया गया मराठी रूपान्तर है । श्रावकों के छह कर्तव्यों-देवपूजा, गुरुभक्ति, स्वाध्याय, संयम, तप व दान-- का उपदेश इस ग्रन्थ में विस्तृत रूप में मिलता है। ___रत्नकीति की दूसरी विस्तृत कृति आराधना कथाकोश है।' नेमिदत्त की संस्कृत रचना का यह रूपान्तर ५२ अध्यायों में पूर्ण हुआ है । ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की आराधना करनेवाले पुराणपुरुषों की १२० कथाएं इसमें वर्णित हैं। रत्नकीति इसके २७ अध्याय लिख पाये। शेष भाग उनके शिष्य चन्द्रकीर्ति ने शक १७४३ ( सन् १८२१) में धाराशिव (उस्मानाबाद) में पूर्ण किया था ।
१. महतिकाव्यकुंज नाम से इन सब रचनाओं का संग्रह वीरचंद कोदर जी गांधी, फलटण ने सन् १९३५ में प्रकाशित किया था। इसके पहले सन् १९०३ में जिनदास चबड़े, वर्धा, सन् १९२२ में सखाराम नेमचंद दोशी, सोलापुर तथा सन् १९२८ में नाना रामचंद नाग, फलटण ने कुछ अभंग व पदों की छोटी पुस्तकें प्रकाशित की थीं।
२. प्र० जयचन्द्र श्रावणे, वर्धा, प्रकाशनवर्ष मालूम नहीं हो सका। ३. भट्टारक लक्ष्मीसेनस्वामी, कोल्हापुर, द्वारा सन् १९६५ में प्रकाशित । ४, अमरावती में इसकी हस्तलिखित प्रति उपलब्ध है।
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