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कन्नड जैन साहित्य का इतिहास गोदावरी तक फैला है।' इससे स्पष्ट है कि उस युग में महाराष्ट्री भाषा ने कन्नड को और दक्षिण में नहीं ठेला था। ई० सन् १७वीं सदी के कवि नंजुण्ड ने इस पद की व्याख्या इस प्रकार की है- 'कावेरी से गोदावरी तक वसुबातल में फैला कन्नड जनपद ( कर्णाटक जनपद ) वर्णनातीत है।'
__ कविराजमार्ग में कन्नड जनपद के मध्यवर्ती भाग अर्थात् पट्टकल्लु कोघल, लक्ष्मेश्वर आदि को शुद्ध कन्नड प्रदेश माना गया है । इसी प्रकार कन्नड भाषाभाषियों को सूक्ष्म बुद्धिसंपन्न तथा काव्यगत दोषों को पहचानने में तीक्ष्णमति कहा गया है। साथ ही साथ इसमें कन्नड भाषा के उत्तर-दक्षिण दो भेद भी बताये गये हैं। उदाहरणस्वरूप इसमें अलग-अलग शब्दभेद भी निरूपित हैं। बेदंडे तथा चत्ताण नाम की द्विविध पद्यशैलियों का उल्लेख भी किया गया है। कन्द, वृत्त या एक-एक जाति का नाम बेदंडे एवं कई कन्द, वृत्त, अक्षर, चौपदी, गीतिका और त्रिपदी आदि का नाम चत्ताण कहा गया है । कविराजमार्ग की भाषा पुरानी कन्नड है । कन्द ही इसमें प्रयुक्त प्रधान छन्द है । इसमें गीतिका और संस्कृत के वर्णवृत्तों का प्रयोग विरल है और प्रत्येक परिच्छेद के अन्त में गद्य का व्यवहार परिलक्षित होता है। कन्नड का आद्य ग्रन्थ कविराजमार्ग कन्नड साहित्य के इतिहास की नांदी होकर आगे की कन्नड परम्परा के धैर्योत्साह के लिए आकर हुआ। वस्तुतः यह ग्रन्थ कन्नड भाषा-भाषियों के लिए गौरव की वस्तु है। इसमें तत्कालीन कन्नड भाषाभाषियों का परिचय बहुत ही सुन्दर ढंग से दिया गया है। किसी भी भाषा में एक लक्षण ग्रन्थ रचा जाने के पूर्व उस भाषा में अन्यान्य ग्रन्थों का रचा जाना भी सर्वथा अनिवार्य है। इस नियमानुसार नृपतुंग ने अपनी बहुमूल्य कृति में अपने से पूर्व के अनेक कवियों के केवल नाम ही नहीं दिये हैं, बल्कि उन पूर्व कवियों के पद्य भी उद्धृत किये हैं। असग, गुणनन्दि और गुणवर्म
केशिराज के व्याकरण में इन कवियों का उल्लेख मिलता है। पोन्न कवि का कथन है कि असग कन्नड कवियों में सौगुने प्रतिभाशाली थे । गुणनन्दि और गुणवर्म का काल ई० सन् ९०० माना गया है। नृपतुग ने इन कवियों का उल्लेख नहीं किया है। अतः ये परवर्तीकाल के प्रतीत होते हैं । मल्लिकार्जुन ने अपने 'सूक्तिसुधार्णव' में कहा है कि गुणनन्दि के उदाहरण मेरे इस ग्रन्थ में दिये जा रहे हैं । गुणवर्म नाम के दो व्यक्ति माने गये हैं । जन्न
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