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________________ गद्यग्रंथ १९७ की विद्वत्तापूर्ण व्याख्याएं नच्चिनाओ इनियर ने लिखी हैं । यह कहना अत्युक्ति न होगी कि शोधपूर्ण व्याख्याओं के कारण ही वे साहित्य-प्रेमियों के आदर प्राप्त यशस्वी हुए। एक अनुश्रुति बताती है कि आचार्य नच्चिनाक' इनियर ने 'जीवकचिन्तामणि' की व्याख्या रचने के हेतु, जैन धर्म में दीक्षित होकर, जैनदर्शन का -सांगोपांग अध्ययन किया और उसमें पूर्ण अधिकार प्राप्त कर लेने के बाद ही उक्त महाकाव्य की व्याख्या लिखी। उसके बाद वे स्वमत में लौट गये होंगे। __ इनकी व्याख्याओं के अध्ययन से पता चलता है कि इन्होंने पहले 'तोलकाप्पियम्' के कुछ अंशों की व्याख्या लिखी और उसके बाद में 'जीवक-चिन्तामणि' की व्याख्या लिखी। 'चिन्तामणि' की व्याख्या में 'तोलकाप्पियम्'-व्याख्या विषयों का उल्लेख पाया जाता है। इसी प्रकार, बाद में लिखित 'तोलकाप्पियम्' की व्याख्या में, जो अन्य अंशों पर लिखी गयी थी, 'चिन्तामणि'व्याख्या के विषय उल्लिखित हैं । इनको सम्पूर्णतया जैन न कहें तो भी जैनधर्म प्रेमी और जैन तत्त्ववेत्ता तो अवश्य कह सकते हैं। अन्य (अप्राप्य ) जैनग्रन्थ तमिल में गणित और ज्योतिष के कई उत्तम ग्रन्थ रचे गये थे, जिनकी चर्चा व्याख्याओं में मिलती है। उन ग्रन्थों को, मालूम होता है, जैन पण्डितों ने ही प्रधानतया प्रकाश में लाने का प्रयत्न किया। सम्भव है कि उनमें अधिकांश ग्रन्थ जैनाचार्यों द्वारा रचित हों। आजकल 'कणक्कधिकारम्' जैसे कतिपय ग्रन्थ प्राप्त हुए हैं । ज्योतिष विषयक ग्रन्थों में 'जिनेन्द्र माले' जैनों के ज्योतिष तथा खगोल ज्ञान का परिचायक है । यह ग्रन्थ 'वेण्-पा' छन्द में रचित है। भाषा सुबोधसुन्दर होने के साथ, छन्द-नियमों से अस्खलित भी है। ऐसे ही कई उत्तम ग्रन्थ उस समय लिखे गये। जैन पण्डित मण्डल पुरुष ने अपने आचार्य गुणभद्र की परिचयात्मक प्रशस्ति में लिखा है कि वे ज्योतिषशास्त्र में पारंगत थे। इस प्रकार, जैनाचार्यों ने न केवल साहित्य की, तथा अन्य विज्ञान, शास्त्र आदि की शाखाओं को भी अपनी आधिकारिक विद्वत्ता, निस्वार्थ सेवा भावना एवं अथक साधना द्वारा सुसमृद्ध किया है। उपसंहार यह सर्वमान्य सत्य है कि जैनों ने जीवन तथा साहित्य के, आचार तथा विचार के, अध्यात्म तथा भौतिकता के-और न जाने ऐसे कितने ही क्षेत्रों को अपनी धर्म भावना और साधना द्वारा समृद्ध किया है। तमिल भाषा को लोकप्रिय बनाकर, उसका प्रचार पण्डित से लेकर सामान्यजनों तक करने का श्रेय जैनों को कम नहीं है । उस समय, जैनों ने 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का आदर्श Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002100
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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