________________
१९६
तमिल जैन साहित्य का इतिहास
( इरैयनार् अहप्पोरुळ्) द्वारा हुआ, जो शैव संत साहित्य तेवारम् के पूर्व रचित था। फिर भी उसका अनुसरण कर कुछ एक ग्रंथ रचे गये होंगे, जो उपलब्ध नहीं हैं । उस परम्परा में अर्वाचीन होने पर भी, पूर्व ग्रंथों की अपेक्षा अत्यन्त उपादेय तथा सुबोध रचना है 'नम्बि अहप्पोरुळ्' जो आज तक बहुजन समाहत है, इसके रचयिता थे 'नार् कविराज नम्बि' । इन्होंने 'तोलकाप्पियम्' के 'अहप्पोरुळ् इलक्कणम्' ( आन्तर - पक्ष का लक्षण ) और अन्य प्रसिद्ध काव्यग्रंथों का पूर्ण अध्ययन कर, वैज्ञानिक ढंग से अपने अनुसन्धानपूर्ण निष्कर्ष निकाले, जिनका समावेश 'नम्बि अहप्पोरुळ्' में हुआ । ग्रंथकर्ता नार् कविराज नम्बि के पिता 'मुत्तमिळ, आशान्' थे, जिसका अर्थ है कि 'इयल्' (साहित्य) 'इश (संगीत) और 'नाटकम्' (नाटक) इन तीनों शाखाओं में निष्णात । (तमिल में 'सुत्तमिल' का अर्थ है तमिल की तीन शाखायें, जो 'इयल', 'इशे' मोर 'नाटकम्' के नाम से प्रसिद्ध हैं) और उनका नाम 'पुलियंगुडि उय्यवन्दार था । उनकी प्रशस्ति में गाया गया है, 'इरु पेरुम् कलैक्कुम् ओरु पेहम् कुरिशिल्' (अर्थात् दो महान् कलाओं के संस्कृत और तमिल साहित्य के एकमात्र उत्तम ज्ञाता, मान्यवर पंडित ) । इनके पुत्र नार् कविराज नम्बि जो प्रस्तुत 'नम्ब अहप्पोळू' ग्रन्थ के रचयिता हैं, जैन थे। इस बात का समर्थन उनकी ईश्वर - वन्दना से होता है । उस ग्रंथ की एक प्राचीन व्याख्या से पता चलता है कि यह नम्बि कुलशेखर पाण्ड्यन् के समकालीन थे । यह पाण्ड्य नरेश चडैयवर्मन् कुलशेखरन्- प्रथम था । उसका शासनकाल बारहवीं शती था । 'नम्बि अहप्पोरूळ' के आधार पर, उसके लक्ष्यग्रंथ के रूप में कविवर पोटया मोलि पुलवर ने 'तंजैवाणन् कोवै' नामक एक प्रबन्ध काव्य रचा था। 'बाण' जाति के लोग तेरहवीं शती में पाण्ड्य देश में जाकर बसने लगे । इस बात की पुष्टि कई शिलालेखों द्वारा हुई है । तेरहवीं शती में, पाण्ड्य नरेश के सेनापति जैवाणन् ने चेरराजा पर चढ़ाई कर विजय प्राप्त की । उसी वीरवर की स्तुतिगाथा के उपलक्ष्य में 'तंजैवाणन् कोवै' का प्रणयन हुआ । अतः यह स्पष्ट है कि तेरहवीं शतीं में 'नम्बि अहप्पोरुळ्' (लक्षणग्रन्थ) काफी प्रसिद्ध हो चुका था और उसका प्रभाव विद्वानों की मंडली को आकृष्ट कर चुका था। नच्चिनाविकनियर्
व्याख्याकारों में 'नच्चिनावकुं इनियर्' का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है । ये वैदिक ब्राह्मण थे । इनका समय तेरहवीं शती के बाद ही होना चाहिए। इनका जन्मस्थान मदुरै था, जो पाण्ड्य राज्य की राजधानी थी । तोलकाप्पियम्, जीवक चिन्तामणि, कलित्तोकै, कुरुन् तोकै आदि प्राचीन ग्रंथों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org