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________________ १९८ तमिल जैन साहित्य का इतिहास अपने आचरण से स्थापित किया। अधिकांश उत्तम लक्षण ग्रन्थ तो जैनाचार्यों की ही देन हैं । यद्यपि, 'तोलकाप्पियम्' को जैनग्रन्थ नहीं कह सकते, फिर भी जैन विचारधारा के प्रभाव-काल में ही उसका अवतरण हुआ था। जैनाचार्यों द्वारा मान्य नियमों का निर्वाह तथा लक्षण 'तोलकाप्पियम्' में स्पष्ट दिखाई देते हैं। - इरैयनार अहप्पोहळ्, पुरप्पोरुळ वेण पामाल, वीर चोळियम, इलक्कण विळक्कम्, तोन्नूल, प्रयोग विवेकम् आदि लक्षण ग्रन्थों को छोड़, अन्य समस्त विख्यात ग्रन्थ जैनाचार्यों द्वारा ही रचित थे। और उपयुक्त ग्रन्थ भी जैनों के ग्रन्थों से बहुत प्रभावित हैं, और उन्हीं के अनुसरण में रचे गये हैं। तमिल के विशिष्ट छन्दों को सार्वजनीन बनाने का एकमात्र श्रेय 'याप्परुंगलम्' के रचयिता स्वनामधन्य अमित सागर को ही है। इसी प्रकार तमिल के व्याकरण को काव्य की तरह पढ़ने-समझने योग्य बनाने का श्रेय 'नन्नूल' के रचयिता विद्वदर् भवणंदि (भवणनंदी) को ही है।। निघंटु ग्रन्थों की बुनियाद जैनाचार्यों ने ही रखी। पञ्च महाकाव्यों और लघु काव्यों में अधिकांश तो जैनों के ही हैं। कम्बर-जैसे दिग्गज पण्डितों के प्रेरणा-स्रोत थे जीवकचिन्तामणि जैसे जैनकाव्य । तमिल का आदिम गद्य ग्रन्थ होने का गौरव जैन पण्डित कृत श्रीपुराणम् को ही है, जो जैनपुराण के रूप में प्रसिद्ध हुआ। नीति तथा धर्मग्रन्थ जितने जैनों ने प्रस्तुत किये, उतने अन्य धर्मावलम्बियों द्वारा नहीं हुए। इस प्रकार प्रत्येक क्षेत्र में अपनी ज्ञान विभूतियों के मूर्त उपहार समर्पित करनेवाले निस्वार्थ सेवी जैनाचार्यों को तमिल जनता अहर्निश आदरपूर्वक स्मरण किया करती है, और भविष्य में भी करती रहेगी। हमारा दायित्व यह सब कुछ होने पर भी दु:खद बात तो यह है कि 'लोकाः समस्तासुखिनो भवन्तु' की विशाल भावना से प्रेरित होकर जैनाचार्यों ने जितने उपयोगी ग्रन्थ बहुजन हिताय एवं बहुजन सुखाय तमिल वाणी द्वारा समर्पित किये थे, वे सब क्या केवल तमिल भाषियों की गुप्त निधि रहेगी ? तमिलेतर भाषी क्या उनके ज्ञानलाभ से सदा वंचित ही रहेंगे ? विश्वमानव की बात तो दूर, कम से कम भारतवासी तो, जो तमिल राज्य से बाहर रहते हैं, उन बहुमूल्य जैनग्रन्थों का रसास्वादन अवश्य कर सकते हैं; यह उनका कर्तव्य भी है। भारत में फैले हुए जैनों का यह प्रथम कर्तव्य होना चाहिए कि वे उन तमिल जैनग्रन्थों को अपनी-अपनी प्रान्तीय भाषा में तथा राजभाषा हिन्दी में भी प्रकाश में लावें और अंग्रेजी द्वारा उनको विश्वव्यापी बनाने का सत्प्रयास किया जाए। यह एक महानतम पुण्यकर्म या ज्ञानयज्ञ होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002100
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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