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• कन्नड जैन साहित्य का इतिहास माने जाते हैं। ये सभी जैन-धर्मावलम्बी थे। इनकी कृतियां दो रूपों में मिलती हैं । सिद्धान्तप्रतिपादक तथा तीथंकरवृत्तात्मक । तत्कालीन रचनाओं के अवलोकन से नुपतुंग को उनमें जो त्रुटियां दिखाई दीं, उन्हें दूर कर परवर्ती कवियों का मार्गदर्शन करने के लिए उसने 'कविराज मार्ग' नामक लक्षणग्रन्थ रचा होगा। प्रत्येक जैन कवि का संक्षिप्त परिचय नीचे दिया जा रहा हैश्रीवर्धदेव ( लगभग ६५० ई०)
नुपतुग ने इनका उल्लेख नहीं किया है। परन्तु ई० सन् ११२९ में उत्कीर्ण श्रवणबेळगोळ के ६७वें शिलालेख में उल्लेख है कि इन्होंने चूडामणि काव्य रचा था और दण्डी ने इनका गुणगान किया था। कवि दण्डी सातवीं सदी में हुए थे । अतः ये भी उसी समय के मालूम होते हैं । भट्टारक अकलंक ने ( १६०४ ई० ) कन्नड की महिमा का वर्णन करते हुए इस ग्रन्थ के सम्बन्ध में कहा है कि 'चूडामणि' तत्त्वार्थ महाशास्त्र की व्याख्या है और इसके रचयिता ९६ हजार ग्रन्थों के निर्माता हैं । देवचन्द्र ( १८३० ई० ) लिखते हैं कि तुंबुलूर नामक आचार्य २४ हजार ग्रंथों के रचयिता हैं और इन्होंने कन्नड में चूडामणि की व्याख्या भी लिखी है । चामुण्डराय ने ( ९७८ ई० ) तुंबुलूराचार्य नामक गुरु का स्तवन किया है। हाँ, इस बात का निश्चित प्रमाण नहीं है कि चूडा. मणि-काव्य और चूडामणि-व्याख्या एक ही ग्रंय है या भिन्न-भिन्न । दुविनीत, श्रीविजय
नृपतुंग के अनुसार विमलोदय, नागार्जुन, जयबन्धु, दुविनीत, श्रीविजय और कवीश्वर आदि कन्नड के कई कवि हुए हैं। ये सभी जैन ही मालूम होते हैं । अभिलेखों से विदित होता है कि दुविनीत गंगराज थे। दुविनीत सातवीं सदी के आरम्भ में जीवित थे और इनके दरबार में कुछ काल तक कवि भारवि रहे थे । भारविरचित किरातार्जुनीय के १५वें सर्ग की व्याख्या दुर्विनीत ने ही की है।
श्रीविजय का उल्लेख केशिराज ने भी किया है। दुर्गसिंह ने ( ११४५ ई० ) श्रीविजय की कविता को कवियों के लिए दर्पण एवं दीपक बताया है। मंगरस ( १५०८ ई० ) और दोड्डय्य ( १५५० ई० लगभग ) इन दोनों का कहना है कि श्रीविजय ने 'चन्द्रप्रभपुराण' चंपूशैली में लिखा है। कुछ विद्वानों का यह भी अनुमान है कि श्रीविजय ने ही नृपतुग के उपनाम से कविराजमार्ग का प्रणयन किया था।
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