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आरम्भकाल
नृपतुंग ने अनुष्टुप् का जो उद्धरण दिया है उसमें प्रास का निर्वाह है
तारा जानकियं पोनि तारा तरळनेत्रेयं । ताराधिपतितेजस्वी
तारदिविजोदया ।। २.१२८ ।।
प्रेरनावं
धराचक
क्रेयं केळे पवं । नेरेयारेणेर्येवन्नं
कुरितब्ध बन्नमं ॥
[ जानकी को साथ बुला ले जाओ । चंचल नेत्रवाली को साथ ले जाओ । चन्द्रमा के समान तेजस्वी विजय का सन्देश लाओ । धरित्री के लिए दूसरा कौन बड़ा है ? कौन साथी है ? कौन सहारा है ? कौन बराबर है ?......]
पंप के समय तक अनुष्टुप् जैसे वृत्त लुप्तप्राय हो गये थे । उस वक्त वृत्त और कंद दोनों प्रमुख माने जाते थे । चंपूकाव्यों में ये छन्द प्रयुक्त मिलते हैं, पर विरल हो । गीत, आखेट, नगरवर्णन, स्त्रीवर्णन, विवाह और गीत आदि के लिए त्रिपदी, अक्कर और रगळे का ही प्रयोग होता रहा । चंपू और चरित आदि काव्यों में लोकगीतों की धुन का समावेश हुआ, जिन्हें संस्कृत के लक्षण ग्रंथों में कोई स्थान नहीं मिला है ।
इस विस्तृत विवेचन का यही आशय है कि लगभग ई० सन् छठीं -सातवीं सदी तक कन्नड प्रदेश में संस्कृत में वर्णित धर्म, सभ्यता तथा साहित्य का प्रचार था । इससे कन्नड भाषा परिपुष्ट होने लगी तथा उसमें कविता रची जाने लगी । आरम्भ में संस्कृत का प्रभाव व्यापक था । उस समय भी ठेठ भाषा में देशी छन्दों में रचनायें अवश्य हुई होंगी, पर वे आज उपलब्ध नहीं हैं। हो सकता है कि उस युग के ग्रंथों में ये लोकगीत छाया के रूप में रहकर वीरशैव साहित्यकारों की कृपा से पुनरुज्जीवित हुए हों । लगभग सातवीं से दसवीं सदी के बीच उपलब्ध ग्रंथों पर शिलालेखों के आधार पर कन्नड साहित्य की ऐतिहासिक रूपरेखा निम्न प्रकार दी जा सकती है
शिलालेखों एवं भट्टाकलंक और देवचन्द्र के अनुसार; श्रीवर्धदेव और नुपतुंग के अनुसार, दुर्विनीत, श्रीविजय, केशिराज, मल्लिकार्जुन और विद्यानन्द के अनुसार । श्रीविजय, असग, गुणनंदि और गुणवर्म इस युग के मुख्य कवि
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