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________________ कन्नड जैन सानित्य का इतिहास इसी कोटि के छन्द हैं। ताल व लय के अनुसार ये गाये जा सकते हैं । इनके प्रभाव से प्राकृत के छन्दों से प्राप्त कंद, रगळे कन्नड की प्रकृति के अनुकूल लगे। ये मात्रागण हैं और गेय हैं। अतः संस्कृत और प्राकृत से विरासत में मिले पद्यवृत्तों पर भी इनका पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। प्रास का निर्वाह तथा यतिभंग इनके साधारण लक्षण हो गये थे। कई शिलालेख इसी छन्द में मिले हैं । लगभग ७०० ई० में रचित बादामी के शिला; लेख त्रिपदी में हैं। साधुगे साधु माधुर्यंगे माधुर्य बाधिप्प कलिगे कलियुग विपरीतं माधवनीतन् पेरनल्ल ॥ [साधु के लिए साधु, मधुर के लिए मधुर, सतानेवाले कलि के लिए कलियुग का परम विरोधी यह माधव असाधारण है ] कट्टिद सिंधमन् केटोदे, नेमगेन्दु बिट्टबोल कलिगे विपरीतंगहितर्कळ कट्टर मेण सत्तरविचारं ॥ [बंधन में पड़े सिंह को कोई इस विचार से बंधनमुक्त कर दे, कि अपना तो इससे कोई नुकसान नहीं। हाँ, इसकी उपेक्षा करो तो इससे दूसरों का बड़ा अहित होना निश्चित है । दूसरों को मृत्युमुख में जाना पड़ता है । ] श्रवणबेळगोळ में ई० सन् ९४२ में उत्कीर्ण शिलालेख इस प्रकार अक्कर. छन्द में है ओलगं दक्षिणसुकरदुष्करमं पोरगण सुकरदुष्करभेदमं ओळगे वामदविषममनल्लिय विषमदुष्करमनिनदरपोरग। गलिकेयेनिपति विषममनदरति विषमदुष्करमेवदुष्टरं ए योळोवने चारिसल बल्लं नाल्कु प्रकरणमनिन्द्रराजं । [मन के भीतर अनुकूल सरल और जटिल हैं, बाहर भी सरल और जटिल का भेद है। भीतर प्रतिकूल विषमता है । इसके बाहर विषम जटिलता भी है । इनसे ऊपर विषमतर और विषमतम जटिलता है। इन चारों अवस्थाओं को आदि में ही रोकनेवाला एकमात्र समर्थ व्यक्ति है इन्द्रराज ।] १. कन्नड के छन्द । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002100
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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