________________
आरम्भकाल
संभव है कि वह स्मृति-परंपरा में सुरक्षित भी रहता आया हो, किन्तु धीरेधीरे उत्तम साहित्य का प्रभाव छा जाने से देशी-भाषा की कविता का अस्तित्व लुप्त हो गया हो। यह केवल कन्नड की ही बात नहीं है, अन्य कई भाषाओं के आदिम रूप की भी यही दशा दिखाई देती है। कन्नड में आरंभ में लघु रचनायें ही बनी होंगी और पद्य-शैली में ही इनका निर्माण हुआ होगा। कन्नड क्षेत्र में पहेलियां, फसल कटाई, मद्यपान, विवाह और मृत्यु आदि विषयों पर अनेक लोकगीत आज भी उपलब्ध हैं।
लोकगीतों में युद्ध का और कलह का भी वर्णन होता था। इनमें रोचक एवं प्रसंगोचित लघुकथायें भी रही हैं। इन्हीं से उस युग की कविता के लिए सामग्री सुलभ हुई होगी। आज समाज में प्रचलित लोकगीत प्राचीन लोक गीतों के ढर्रे पर ही चल पड़े होंगे। स्त्रियां धान कूटते समय ये गीत गाया करती थीं । हां, इन गीतों के रचयिता काव्य के लक्षणों से अवश्य अपरिचित थे। ऐसे व्यक्तियों को शास्त्रीय परम्परा के अनुयायी दुष्कवि कहा करते थे और उनकी उपेक्षा ही करते थे। अहंमन्य कवियों के हास-परिहास के परिणाम स्वरूप ये लोकगीत उपेक्षित हो गये और इनका अस्तित्व नहीं रह सका। हां, इनके अस्तित्व के प्रमाण अवश्य रह गये। कवि संस्कृत और प्राकृत में ही नहीं। द्रविड़ देशी-भोषाओं में भी काव्य-निर्माण किया करते थे। इनके रूप, भाव और बन्ध स्वतन्त्र होते थे।
शिक्षित समाज में उस समय धर्म से सम्बन्ध रखनेवाले ग्रंथ, आख्यान आदि ही प्रचलित थे। पर जनता में, विशेषतः स्त्रियों में, देशी-भाषाओं के छन्दों में उपलब्ध रचनायें ही लोकप्रिय थी। धीरे-धीरे लोकभाषा के ये नमूने शिष्ट साहित्य के लक्षण ग्रंथों में भी स्वीकृत होते गये । लक्षणकारों के अनुसार देशी, मार्गी के भेद का यही आधार प्रतीत होता है । जैन साहित्य की अपेक्षा जब वीरशैव साहित्य का प्रचार बढ़ने लगा तब इन वीरशैव कवियों ने इन्हीं देशी छन्दों का प्रयोग किया और इन्हें साहित्यिक गौरव प्राप्त हुआ।
नागवर्मरचित छन्दोम्बुधि में ये छन्द संस्कृत के छन्दों से पृथक वणित मिलते हैं । ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र इन तीन अक्षरों से इनका निर्माण हुआ है। इनमें प्रास का निर्वाह तो हुआ है, पर यति का कोई नियम नहीं रहा । द्विपदी, 'त्रिपदी, चौपदी, अक्करगीतिका ( अक्षरगीति का ), एळे, षट्पदी,' आदि
१. कन्नड के छन्द ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org