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________________ कन्नड जैन साहित्य का इतिहास कन्नड प्रदेश में ब्राह्मण, जैन और बौद्ध धर्म प्रमुख थे। हां, शुरू में ब्राह्मणों ने धर्म-प्रचार करने के लिए देशी भाषा का व्यवहार नहीं किया। उनका कार्य संस्कृत में ही चलता रहा। बौद्धों ने देशी भाषा का व्यवहार किया होगा। पर उस युग में प्राकृत का ही सर्वाधिक प्रचार था । कन्नड में बौद्धों ने कुछ लिखा था या नहीं, इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। यदि उन्होंने कन्नड में कुछ लिखा भी हो तो ८वीं-९वीं सदी तक बौद्ध धर्म के दक्षिण में लुप्तप्राय हो जाने के कारण, उनके विहारों के साथ ये रचनायें भी कालकवलित हुई होंगी। आज उपलब्ध सामग्री के आधार पर हम इतना निस्संदेह कह सकते हैं कि जैन धर्म-संबंधी साहित्य कन्नड में प्रचुर परिमाण में उपलब्ध है। आरंभ में इन ग्रंथों का रूप वीरशैवधर्मकालीन वचनशैली में रहा होगा जिसमें सिद्धान्त के निरूपण तथा दर्शन संबंधी व्याख्या को महत्त्वपूर्ण स्थान मिला था। उस समय तीर्थंकरों की कथायें और पुराण पुरुषों की जीवनियाँ चरितकाव्य की शैली में रची गई होंगी। कन्नड जैन कवियों ने रामायण, महाभारत और हरिवंश का वर्णन जैन संप्रदाय के अनुसार ही किया है। विद्वानों की राय है कि प्रथम से आठवीं सदी तक जैनाचार्यों ने शास्त्रार्थ में अन्य धर्मावलंबियों को पराजित कर राजाओं से द्वारा विशेष रूप से सम्मान प्राप्त किया था। समंतभद्र, कवि परमेष्टि, पूज्यपाद, अकलंक आदि अनेक आचार्य ऐसे हैं जिनका गुणगान जैन कवियों ने मुक्तकंठ से किया है । खेद है कि इनकी कोई रचना आज तक कन्नड में दिखाई नहीं देती। संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि ईसा की छठी-सातवीं सदी तक कन्नड प्रदेश में संस्कृत का ही प्रचार था और संस्कृत में ही धर्म के उद्बोधन का कार्य होता रहा । इतिहास, पुराण, कथावृत्त में ही उपलब्ध थे । आरंभ में संस्कृत और प्राकृत की पदावलियों से देशी-भाषा चेतना-संपन्न बनाई गई थी। यह तैयारी पूरी होते ही कन्नड में काव्य-निर्माण का आरंभ हुआ। अब यह प्रश्न उठ सकता है कि संस्कृत साहित्य के प्रचार से पहले दक्षिणभारत में अर्थात् दक्षिण के निवासियों में क्या कवि-प्रतिभा ही नहीं थी ? उस प्राचीनतम काल में भले ही भाषा एक ही रही हो अथवा चार-पांच, परन्तु जनता में सभ्यता का प्रचार अवश्य हुआ था। इसके लिए इतिहासकार विपुल प्रमाण उपस्थित करते हैं। उस युग में कन्नड केवल जन-बोली ही नहीं रही होगी अपितु उसमें काव्य-रचना भी होती रही होगी। हो सकता है कि उसका मौखिक रूप ही रहा हो, लिखित रूप में कुछ भी प्राप्त न हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002100
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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