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आरम्भकाल
नारायण, भारवि, कालिदास और माष आदि संस्कृत कवियों के नामों का गौरव के साथ उल्लेख करते हैं । संस्कृत कवियों का उल्लेख पंप की रचनाओं में नहीं मिलता। किन्तु श्रीहर्ष, कालिदास, भारवि, बाण, भट्टनारायण आदि संस्कृत-कवियों के भाव तथा शिल्प पंप की कृतियों में दृष्टिगोचर होते हैं। रचना-तंत्र में कालिदास से अपने को सौगुना बढ़ा-चढ़ाकर कहने में पोन्न संकोच नहीं करता है। हां, रन्न ने बड़ी नम्रता से रामायण, महाभारत के कवियों और पद्य-शैली में कालिदास, गद्यविधान में बाण आदि के प्रति अभिनंदन के साथ आदर भी व्यक्त किया है। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि आरंभिक कन्नड कवि संस्कृत के विख्यात रचनाकारों का अवश्य अनुसरण करते आये हैं।
भाव, रीति और वस्तु के अतिरिक्त कन्नड कवियों ने संस्कृत के छन्द भी अपनाये हुए थे । रामायण, महाभारत, रघुवंश और इतर नाटक आदि संस्कृत की श्रेष्ठ रचनाओं में अनुष्टुप्, इन्द्रवज्ञा, वंशस्थ, मालिनी और आर्या बड़े लोकप्रिय छन्द थे। नुपतृग, नागवर्म और केशिराज ने जो उद्धरण दिये हैं, उस आधार पर पूर्वोक्त निष्कर्ष निकाला जा सकता है। वर्णवृत्तों में अनेक प्रयोग करने के बाद उन्हें कन्नड की प्रकृति के अनुकूल न देखकर कवियों ने उनका परित्याग कर, कंद,* चंपक माला, षट्पदि आदि का प्रयोग आरंभ किया होगा। कालान्तर में जब संस्कृत में चंपूशैली लोकप्रिय हुई तो कन्नड के जैन कवियों ने भी इस काव्यविधा को खूब अपनाया। __ संस्कृत की काव्यपरम्परा से अनुप्राणित होकर कन्नड काव्य के सुनि रूप धारण करने के पूर्व कन्नड प्रदेश में संस्कृत भाषा द्वारा प्रचारित सभ्यता एवं संस्कृति का प्रभाव कम नहीं था। यह प्रभाव ईसा पूर्व तीसरी सदी से ही देखने में आता है। चित्रदुर्ग के आसपास उपलब्ध अशोककालीन प्राकृत अभिलेख ही इसके सुदृढ़ प्रमाण हैं। आरंभ में संस्कृत तथा प्राकृत राज्याश्रित भाषायें थीं। धीरे-धीरे यह गौरव देशी-भाषाओं को प्राप्त हुआ । कन्नड भी काव्योपयोगी मानी गई। अशोक के ये अभिलेख ब्राह्मी-लिपि में हैं । इसी ब्राह्मी से कन्नड लिपि का विकास हुआ होगा। कन्नड में प्राकृत की पदावलियां यथेष्ट हैं। वैयाकरणों के कथनानुसार ये पद संस्कृत से अपभ्रंश की अवस्था को प्राप्त करने के पूर्व के हैं। इन पदों का विकास धर्म, दर्शन, सभ्यता और इतिहास आदि से संबद्ध था ।
*कन्नड का अपना छंद ।
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