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गद्यग्रंथ
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अलंकार या अणि लक्षणधारा का पांचवां अंग बन गया । आचार्य दण्डी के, जो प्रसिद्ध आलंकारिक थे, तमिलनाडु के निवासी होने से, अलंकार ग्रन्थ तमिल में अनूदित हुआ और 'दण्डि अलंकारम्' के नाम से प्रसिद्ध हुआ । किन्तु उन्हीं के समय में अर्थालंकार का प्रादुर्भाव और प्रसार तमिलनाडु में हुआ, ऐसी बात नहीं । उनके पूर्व ही तमिलनाडु में दिवाकरम्, पिंगलन्दै आदि निघंटु ग्रन्थों के द्वारा अर्थालंकार का प्रसार हो चुका था और उन ग्रन्थों में आलंकारिक विवेचन भी काफी हो चुका है। इसी पारम्परिक धारा को 'याप्परंगलम्' आदि शब्दालंकार - ग्रन्थ आगे बढ़ाते रहे ।
यह धारा प्रधानतया और वैज्ञानिक रीति से गतिमान हुई सातवीं से नौवीं शती में, जबकि पल्लवनरेशों का शासन उन्नत अवस्था में था । इन अलंकार ग्रन्थों में निर्दिष्ट नामों से कुछ विद्वानों को भ्रम हो गया कि यह धारा संघकाल से ही चली आयी होगी। किन्तु सत्य तो यह है कि कलनों के बाद, पल्लवों के समय में तमिल का उत्कर्ष संस्कृत की समकोटि में बढ़ने लगा, तो प्राचीनतम नामों का पुनर्व्यवहार होने लगा । इसीलिए उस समय के ग्रन्थों में संघकालीन शब्दों का प्रयोग सामान्यतया होने लगा ।
अविनयम्
पल्लवों के शासनकाल में बहुत सारे अलंकार ग्रन्थों का प्रणयन हुआ । फिर भी उनके उपलब्ध न होने के कारण यह तय करना कठिन है कि इनमें से कितने ग्रन्थ जैन विद्वानों के थे । फिर भी यह तो निर्विवाद तथ्य है कि 'अणि इयल्' ( अलंकार या रीति-शाखा ) में भी जैन विद्वानों का पर्याप्त सक्रिय सहयोग रहा है । प्राचीन अलंकार ग्रन्थों में एक है 'अविनयम्' जिसके रचयिता थे अविनयनार् । वे जैन थे । अर्वाचीन शब्दालंकार ग्रन्थ 'याप्परंगल् वृत्ति' में उक्त प्राचीन ग्रन्थ के कई पद्य उद्धरण के रूप में आये हैं । सुप्रसिद्ध . तमिल व्याकरण ' नन्नूल' के व्याख्याकार मयिलेनाथर ने भी अपनी व्याख्या में स्पष्ट लिखा है कि साधु अविनयनार् जैन पंडित थे । 'वर्णों ( अक्षरों ) का मूल कारण अणुसमूह है।' इस मत का समर्थन जैसे आचार्य पवन्दि ( भवणनन्दी ) ने अपने 'नन्नूल' ग्रन्थ में किया था, वैसे ही आचार्य अविनयनार ने भी अपने ग्रन्थ में किया । सम्भव है, इसका अनुसरण बाद के जैन विद्वानों ने किया हो ।
'अविनयम्' तोल काप्पियम् की तरह अपने समय का ख्यातिप्राप्त एवं सुप्रचलित आलंकारिक ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ की एक प्रामाणिक व्याख्या राज
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