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तमिल जैन साहित्य का इतिहास
पवित्र पल्लव तरैयर नामक विद्वान ने लिखी। बाद के विद्वान् व्याख्याता मयिलनाथर ने उस बात का उल्लेख करते हुए 'अविनयम्' की बड़ी प्रशंसा की। 'तोलकाप्पियम्' में निर्दिष्ट लक्षण-रीति आदि के नियमों से भिन्न नियम 'मविनयम्' में हैं। सम्भव है कि 'अविनयम्' और उसके समर्थक अनुयायी ग्रन्थों के व्यापक प्रभाव के कारण 'तोलकाप्पियम्' के नियमों का व्यवहार कम होने लगा।
याप्परुंगलम् 'अविनयम्' के बाद ख्यातिप्राप्त अलंकार ग्रन्थ 'याप्परुंगलम्' है। इसमें तमिल के विशिष्ट छन्द, वर्ण, मात्रा आदि का विशद् विवेचन है । इसके रचयिता थे जैन साधु अमितसागर ( इनको अमुदसागर या अमृतसागर भी कहते हैं )। इन्होंने 'याप्परुंगल कारिकै' नामक दूसरा अलंकार ग्रन्थ भी लिखा है, जो 'याप्परुगलम्' का सरल-सुबोध प्रारंभिक रूप है । ये 'कळत्तर' के निवासी थे, जो मद्रास शहर के निकट है। इनकी ख्याति से उस स्थान का नाम 'कारिक कळत्तूर' पड़ा। इसी नाम से ग्यारहवीं शती का एक शिलालेख मिलता है जो चोलराजा राजेन्द्र के समय का है। अतः 'याप्परुंगल कारिकै' ग्यारहवीं शती के पूर्व की कृति मानी जा सकती है। विद्वानों का मत है कि इस ग्रन्थ का रचनाकाल दसवीं शती मानना उचित होगा। __ 'याप्परुंगलम्' अर्वाचीन होने पर भी, अपने पूर्ववर्ती अलंकार ग्रन्थों से अधिक प्रशस्त और विद्वज्जन समाहत हुआ। आज तक तमिल के उच्च शिक्षार्थी प्रधानतया 'याप्परुंगलम्' और 'याप्परुंगलवृत्ति' का ही अध्ययन करते हैं, और वस्तुतः, प्रामाणिक और विशद् अलंकारविवेचन, विषयों का वर्गीकरण तथा सरल अभिव्यंजना अन्य ग्रन्थों में उतनी सुन्दर नहीं है, जितनी इन दोनों ग्रन्थों में है।
'याप्परगल कारिक' के व्याख्याकार गुणसागर थे। ग्रन्थ के प्रारंभिक पद्य से पता चलता है कि यह गुणसागर ग्रन्थकर्ता अमितसागर के आचार्य थे। पर यह विवाद की बात है कि प्राकृत व्याख्याकार गुणसागर दूसरे थे या वही आचार्य । शिष्य के ग्रन्थ की उत्तमता से प्रभावित होकर आचार्य को उसकी व्याख्या लिखने की इच्छा होना अनोखी बात नहीं है। इसको मान भी लें, तो याप्परुंगलम् (जिसका दूसरा नाम 'याप्परुंगलवृत्ति' था) की व्याख्या 'याप्पइंगलवृत्ति उरै' भी इन्हीं आचार्य गुणसागर की होगी। यह भी संभव है कि
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