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तमिल जैन साहित्य का इतिहास "तिरुन्तिय कमल वूर्ति तिरुप्पुहळ पुराणम् शेय्दोन् गुणभद्रन् ताळ पणिन्द मंडलवन् ।" अर्थात्, 'कमल पर विचरनेवाले जिनदेव की महिमा को पुराण ग्रन्थ के रूप में रचनेवाले आचार्य गुणभद्र के चरणों में शरण पानेवाले (प्रणाम करनेवाले ) मंडलवन्"""।'
इसी प्रकार और भी दो-तीन स्थानों पर आचार्य गुणभद्र का उल्लेख है। आचार्य गुणभद्र नवीं शती के थे और उन्होंने संस्कृत में 'उत्तरपुराणम्' की रचना की थी। गुणभद्र आचार्य जिनसेन के शिष्य थे। मंडल पुरुषर इन्हीं गुणभद्र के शिष्य थे । किन्तु ये कृष्णदेवराय के समकालीन नहीं थे। निघंटुकर्ता गुणभद्र तो कृष्णदेवराय के समकालीन थे। अतः कुछ विद्वानों का मत है कि मंडल पुरुषर को श्री पुराण के रचयिता मानने पर कई असंगतियां उत्पन्न हो सकती हैं। श्री वेंकट रायलु रेड्डियार ने अपने संस्करण में इस विषय की कई युक्तियों के साथ छानबीन की है।
किन्तु मेरे अनुशीळन के अनुसार मंडलपुरुष ही श्री पुराणम् के रचयिता होने चाहिए। ग्रन्थकार ने ग्रन्थारम्भ में अर्हत् भगवान् की वन्दना करना ही पर्याप्त समझा, इसीलिए अपने गुरु की वन्दना नहीं की तथा आत्म-परिचय भी नहीं दिया।
मैं पर्याप्त विचार-विमर्श के उपरान्त इस निर्णय पर पहुंचा हूँ। अतः कह सकते हैं कि यह सोलहवीं शताब्दी की कृति है।
निघंटु ग्रन्थ प्रसिद्ध निघंटु ग्रन्थ : 'दिवाकरम्' .
कोश, निघंटु आदि वस्तुतः भाषा के परम उपयोगी खजाने होते हैं । इस क्षेत्र में तमिल भाषा को सुसमृद्ध बनाने का श्रेय मुख्यतया जैन पंडितों को है। तमिल के प्राचीनतम ग्रंथ ( लक्षण ग्रन्थ ) 'तोलकाप्पियम्' का 'उरि इयल' अध्याय निघंटु-सा लगता है। अनुमान यह है कि उस समय में ही निघंटुरचना का प्रयास चल रहा था। किन्तु उसका पूर्णरूप पल्लवों के शासनकाल में मिलता है। उपलब्ध निघंटु ग्रंथों में प्रचीनतम तथा पूर्ण ग्रन्थ है 'दिवाकरम्'। इसी को 'आदिदिवाकरम्' भी कहते हैं । अम्बर नामक प्रदेश के शासक शेन्दन के प्रोत्साहन से रचे जाने के कारण इसे 'शेन्दनदिवाकरम्' भी कहते हैं। दिवाकरमुनि इसके रचयिता हैं । यद्यपि यह ग्रन्थ शिववंदना के साथ प्रारम्भ होता है, तथापि है यह जैन ग्रन्थ ही। यह निघंटु राष्ट्रकूष्टों के उत्कर्ष काल
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