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गद्यग्रंथ
- १८७ की बात ही क्या ? ई० पू० तीसरी सदी के गुफाशिलालेखों में ऐसी मिश्रित भाषा का रूप मिलता है। बौद्ध तथा जैन विद्वानों ने धर्मप्रचार के लिए आवश्यक पारिभाषिक शब्द मूल भाषा से ( पाली, प्राकृत, संस्कृत आदि से ) लिये थे। इस शैली की अवहेलना, तत्कालीन तिरुज्ञानसम्बन्धीर जैसेशैवाचार्यों ने की। पर ऐसी कटु आलोचना-अवहेलना से टक्कर लेकर भी वह शैली पनपती रही। पेरुन्देवनार रचित 'भारतम्' की व्याख्या में मणिप्रवाल शैली दिखाई देती है। यह 'भारतम्' ग्रन्थ तोळ ळारू एरिन्द ('तोळ्ळारू' प्रदेश के विजेता ) नन्दिवर्मन् के समय में ( ई० नवीं शती ) रचित हो सकता है । ई० ९८८ के शिलालेख में यह वाक्य है-"माणिक्कंगळिरण्डिनाल मागधैरष्टाभिरुष्णांशु दिग्वरैः.......""पायात् ।" इस वाक्य का पहला अंश तमिल है जिसका अर्थ है, 'दो माणिकों से' और बाद का अंश तो शुद्ध संस्कृत का है।
मणिप्रवाळम् ___ यह शैली बहुप्रचलित हो जाने के कारण ग्यारहवीं शती में प्रणीत व्याकरण-ग्रन्थ या लक्षण-ग्रन्थ 'वीर चोळ्यिम्' में मणिप्रवाल शैली का लक्षण प्रतिपादित है । इस ग्रन्थ की रचना वीरचोळन् नामक नरेश के नाम पर आचार्य बुद्धमित्र ने की थी। मोती और प्रवाल के दानों से गुथी माला की तरह, तमिल और संस्कृत के शब्दों से बनी भाषा-शैली को मणिप्रवाल शैली कहते हैं। मलयालम भाषा में इस शैली का विविष्ट महत्त्व है। मलयालम् लक्षणग्रन्थ 'लीलातिलकम्' में कहा गया है कि लाल माणिक मणियों और प्रवालों से बनी माला में जिस तरह दोनों दाने एक ही लालिमा में एकाकार हो जाते हैं, उसी प्रकार मलयालम् और संस्कृत के शब्द भाषा-प्रवाह में एकरूप हो जाते हैं। श्री पुराणम् के रचयिता
इनके नाम का ग्रन्थ में कहीं उल्लेख नहीं है। मद्रास के निकटवर्ती 'पेरुमण्डर' में रहनेवाले एक जैन पंडित ने श्रवणबेळगोळ में जाकर मूल श्री पुराण का अध्ययन किया, फिर उसका तमिल में अनुवाद किया-ऐसी एकअनुश्रुति चली आ रही है।
कुछ विद्वान् लिखते हैं कि इस ग्रन्थ के रचयिता 'मंडलपुरुडर (पुरुष)' थे, जो 'चूळामणि'निघंटु के भी रचयिता थे। उन्होंने अपने निघंटु में लिखा है,
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