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गद्यग्रंथ, इलक्कणम्, निघंटु आदि
गद्यग्रन्थ : 'श्रीपुराणम्'
तमिल में गद्यग्रन्थों का महत्त्व ईसाई पादरियों ने ही बढ़ाया । 'तोल काप्पियम्' में संवाद या गद्यमय कविता की चर्चा है । 'शिरगुरी कथै' आदि कथाएं उसी शैली में लिखी गयी थीं । किन्तु उन्हें शुद्ध या गद्य - साहित्य नहीं कह सकते । " शिलप्पधिकारम्' और पेरुन्तेवनार विररति 'भारतम्' में भी गद्य मिलता है लेकिन इन्हें भी पूर्णतया गद्य साहित्य नहीं कहा जा सकता । बाद में 'इलक्कण' ( लक्षण - व्याकरण, छंदादि ) ग्रन्थों की व्याख्या के रूप में 'इरैयनार् अहप्पारुळ' आदि गद्यग्रन्थ लिखे गये । इनकी शैली और भाषा प्रवाह ऐसा है कि इनको साहित्यिक कह सकते हैं, फिर भी इनको पूर्ण एवं सफल गद्य साहित्य में नहीं रखा जा सकता । इसी प्रकार वैष्णव आचार्यों ने 'ईडु', 'पनीरायिरप्पड', 'मूवायिरप्पडि' आदि अद्भुत् व्याख्याएँ वैष्णव संत आळ्वारों की वाणियों ( नालायिर दिव्यप्रबन्धम् ) के लिए रची थीं, जो संस्कृत- तमिल मिश्रित 'मणिप्रवाल' शैली में निर्मित हैं । ये व्याख्याएँ साहित्यिक दृष्टि से उच्चकोटि की रचनाएँ हैं और इनकी भावगम्भीरता और प्रांजल अभिव्यंजना की सराहना न केवल वैष्णव अपितु वैष्णवेतर विद्वान् भी मुक्तकंठ से करते हैं । फिर भी इन्हें शुद्ध गद्य साहित्य नहीं कह सकते ।
पुराणम्
तमिल गद्य-साहित्य का आदिग्रन्थ श्रीपुराणम् माना जा सकता है । ईसाई पादरियों के प्रयास के पूर्वप्रचलित गद्य साहित्य का जो रूप था, वह इसमें मिलता है । यह एक प्रमुख जैन ग्रन्थ है । नवीं शताब्दी में गुणभद्राचार्य ने त्रेसठशलाकापुरुषचरित के रूप में जिनसेनाचार्य के महापुराण के अन्तर्गत 'उत्तरपुराण' नामक ग्रन्थ लिखा था । उसी के अनुसरण में 'श्री पुराणम्' लिखा गया ।
श्रीपुराणम् ग्रन्थ 'मणिप्रवाल' शैली में रचित है । जब अन्य भाषाप्रवण विद्वान् कोई ग्रन्थ लिखते हैं, तो उसमें रचयिता के भाषान्तर- ज्ञान का स्पष्ट प्रभाव, उस भाषा के शब्दप्रयोग द्वारा पड़ ही जाता है । जब समय की मांग, रुचि, आग्रह आदि उत्प्रेरक साधन साथ देते हैं, तो भाषासम्मिश्रण
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