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काप्पियम् - २
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अवस्थितियों और बोली, क्रीडा आदि का विस्तृत एवं रोचक वर्णन इसमें होता है । ऐसे कई जैन प्रबन्ध रचे गये थे, पर अब नहीं मिलते ।
विजयनगर साम्राज्य
विजयनगर के साम्राज्यकाल में सभी धर्मों और सम्प्रदायों का समुचित आदर होता था । यह साम्राज्य वर्णाश्रमधर्मों का जाग्रत पालक-पोषक था । इस साम्राज्य में ये चारों सम्प्रदाय राजाश्रित तथा आदरास्पद थे; १. माहेश्वर मत, २. बौद्ध मत, ३. वैष्णवमत और ४. आर्हत मत ' ।
इस काल में जैन मतावलम्बी अतीत की अपेक्षा अधिक उदार थे तथा अपने विधि-नियमों में परिष्कार कर लिया था । ई० ११५१ के एक शिलालेख में उल्लेख है कि 'शिव, ताद्रि ( तोताद्रि ? ), और ( सुख प्रदायी जिन परमात्मा को प्रणाम ।... १२ तत्कालीन हिन्दू भी जिनालय में जाकर आराधना आदि करने के लिए हाथों में 'काप्पू' (रक्षा सूत्र ) बांधने लगे थे । जैनों ने भी हिन्दुओं की अनेक विधियाँ अपना ली थीं । इतिहास से पता चलता है कि यह समन्वय स्थिति विजयनगर साम्राज्य की स्थापना के पूर्व भी रही । इस समन्वय का एक उत्तम उदाहरण मिला है ।
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विरूपाक्ष उडैयार और बुक्कराय के शासनकाल में हिन्दुओं और जैनों के मध्य स्थल सीमा सम्बन्धी विवाद खड़ा हुआ । स्थिति विकट थी । आखिर राजाज्ञा से या नागरिकों की अभ्यर्थना पर दोनों पक्ष के लोग एक स्थान पर एकत्र हुए और खुले मन से चर्चा हुई । अन्ततः विद्वानों ने यह निर्णय किया कि जैन दर्शन और वैष्णव दर्शन में कोई विच्छेदक अन्तर नहीं है; अतः दोनों पक्षवाले आपस में मिल-जुलकर रह सकते हैं और उन्हें रहना होगा । उसका सुपरिणाम यह हुआ कि जिनालयों के द्वाररक्षक और पुजारी वैष्णव नियुक्त किये गये और चूना पोतने का कैङ्कर्य ( सेवा ) भी वैष्णवों को ही सौंपा गया। इस घटना को उसी समय अभिलेख के रूप में शिलांकित किया गया । यह प्रबल आज्ञापत्र से कम न था ।
इसी प्रकार, सोलहवीं शताब्दी के श्रमणों में भी समन्वय की भावना दृष्टिगोचर होती है । तत्कालीन जैन साहित्य और अभिलेखों में स्वमत प्रख्यापन १. E. C. XI. C. K. 13, 14, 20, 2 २. E. C. XII, Tr. 9. 3. ३. E. C. II, 334.
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