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तमिल जैन साहित्य का इतिहास
यह भक्तिप्रवाह जैन धर्म को आगे चलकर एक प्रकार से नामशेष कर चुका था । जैन कवि रचित 'याप्परुंगलवृत्ति' (छंदग्रन्थ) में कई पद्य तत्कालीन शैववैष्णव भक्ति-धारा के द्योतक हैं। जो पद्य जैन मतपोषक हैं, वे भी तत्कालीन आळ वार और नयन्मारों के गीतों की तरह सुमधुर हैं। शैवाचार्य तिरुनावुक्करश के कई पद्य, जो उन्होंने जैन होने के समय रचे थे, अब भी जैन साहित्य में उपलब्ध हैं।
अन्य जैन-ग्रन्थ पल्लवों के शासनकाल में ही 'परणि' के अतिरिक्त 'उला', 'कलम्बकम्', 'अन्तादि' आदि प्रबंधग्रन्थ प्रसिद्ध हो गये थे। ‘पन्निरु पाट्टियल नामक लक्षणग्रन्थ में उक्त प्रबंधों के विस्तृत लक्षण वर्णित हैं । 'याप्परुंगलवृत्ति' (जैन पंडित. रचित तमिल छंदग्रन्थ) में उद्धृत पद्यों से पता चलता है कि जैन कवियों ने भी कई प्रबंध काव्य रचे थे। किन्तु कालकवलित हो जाने से, उनमें से कई एक अब पूर्णतया नहीं मिलते । 'तिरुक्कलम्बकम्' और 'निरुनूट्रन्तादि' नामक दो पुस्तकें अब पूरी मिली हैं जो उत्तम जैन प्रबंध ग्रन्थों को परिचायक हैं। ये दोनों अर्वाचीन ग्रन्थ हैं। तिरुक्कलम्बकम्' के रचयिता का नाम उदीचि देवर है । 'उदीची' का अर्थ है उत्तर दिशा। तिरुनून्तादि' के रचयिता अविरोधियार थे। इस ग्रन्थ में 'मयिलेनाथर' का वर्णन है, जो नेमिनाथ तीर्थ. कर के मंदिर के रूप में प्रसिद्ध था और आजकल 'मयिल' या 'मयिलापूर' (मद्रास शहर का एक हिस्सा) के नाम से प्रसिद्ध है। इन कवियों का प्राकृत, पाली आदि अपभ्रंश भाषाज्ञान, उक्त ग्रन्थों के द्वारा प्रकट होता है । अर्वाचीन प्रबंधों में 'आदिनाथ पिल्लै तमिळ ' भी एक है । यह विजयनगर साम्राज्य के अभ्युदय के प्रभाव से उत्पन्न गाथा प्रबंध प्रतीत होता है । नामों का स्पष्टीकरण
'कलम्बकम्' वह प्रबंध है, जिसमें विविध कविताओं का संकलन हो। साहित्यिक एवं व्यावहारिक परम्पराओं का अनुसरण कर ये कविताएँ रची जाती हैं । इनका कदम्ब (समाहार) ही 'कलम्बकम्' है। अन्तादि कविता की तरह, इस प्रबंध की कविताएं हैं। पहली कविता का अन्त, दूसरी का प्रारंभ बन जाता है। इसी प्रकार पूरा प्रबंध ही एक दूसरी कविता से संबद्ध होकर मालाकार बन जाता है।
"पिल्लं तमिळ' बालप्रबन्ध को कहते हैं। इसमें कवि अपने प्रिय देवता या राजा का वर्णन बाहक रूप में करता है। बालक की विविध दशाओं,
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