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________________ १८५ काप्पियम्-२ पूरा नाम था दीपंकुडि जयंकोण्डार । 'जयंकोण्डार' का अर्थ होता है विजय प्राप्त ( राजा ), जो मुख्यतया चोल राजाओं की उपाधि थी। चोल-शासन में यह प्रथा थी कि राजा की उपाधि या प्रशस्तिसंज्ञा अमात्य और दरबारी श्रेष्ठ (प्रधान) कवि के नामों के साथ जोड़ी जाती थी। कविवर 'जयंकोण्डार' को तत्कालीन कवियों ने 'कविचक्रवर्ती' नाम से अलंकृत किया है। 'दीपंकुडि' तत्कालीन श्रमणसंघ का नाम था। अतः यह स्पष्ट है कि श्रेष्ठ 'परणि' प्रबंध (कलिंगत्तु परणि) के रचयिता कविचक्रवर्ती जयंकोण्डार श्रमणसंघ के साधु थे। चोल-नरेश कुलोत्तुंग (ग्यारहवीं शताब्दी) के समकालीन थे। भक्ति-गीतों की धारा ___तमिलनाडु में पल्लवों के शासनकाल में भक्तिधारा अधिक व्यापक और वेगवती हुई । शैवसंतकाव्य 'तेवारम्' और वैष्णव संत अळ वारों की अमृतमयी वाणी 'नालायिर दिव्य प्रबंधम्' आदि का निर्माण तथा बहुजनहिताय प्रसार इसी काल में हुआ था। इसका दूसरा पक्ष भी अछूता न रहा । साम्प्रदायिक कलह, एक-दूसरे के मतों को नीचा दिखाने की धुन, मयंकर स्पर्धा-प्रतिस्पर्धा और इनके परिणामस्वरूप प्रतिशोध आदि का जोर भी कम नहीं था। सम्प्रदाय तथा धर्म (मत) राज्यशासन की आड़ में अपने क्रिया-काण्डों पर जोर देने लगे। फिर उत्तेजना, उन्माद, उच्छृखलता और उद्दण्डता की क्या कमी हो सकती है ? फिर भी ये धर्म-कलह पाश्चात्य देशों की तरह घोरतम महायुद्धों के रूप में परिणत नहीं हुए। कई धर्मकट्टरों के मध्य ऐसे आदर्श समन्वय पोषक नरेश भी हुए जो बिगड़ी स्थिति को सुधारने का प्रयास करते थे। पल्लवनरेश महेन्द्रन ने स्वयं शैव होने पर भी, श्रमणों (जैनों) को सम्मानित करने में कोई कसर नहीं रखी । जैन शिलालेखों में इसके पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं। उस समय श्रमणधर्म की कई बातें जीवन के आधार तत्त्वों के रूप में स्वीकृत हो चुकी थीं। सामुदायिक उत्थान के लिए वे प्रबल संबल बने । अहिंसा, जनसेवा, भगवान् की उपासना, दयालुता, सदाचार आदि कई तत्त्व न केवल जैन धर्मावलंबियों, बल्कि अन्य मतावलम्बी लोगों के लिए भी अनिवार्य जीवनसूत्र बने । शैव महाग्रंथ 'पेरियपुराणम्' में इन बातों पर अधिक जोर दिया गया है। सुप्रसिद्ध शैवाचार्य तिरुनाबुक्करशद् पहले जैन थे, और बाद में शैव बने । उन्होंने अपने आराध्य देव शिव को 'दयामूलतत्त्व' बताया। इस प्रकार कई बातें जो जैन धर्म की थीं, उस काल में अन्य मतों में समाहित हो गयीं। कुछ विद्वानों के मतानुसार, इस शैव मत के नवोत्थान को जैन धर्म का नवोदय भी कह सकते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002100
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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