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काप्पियम्-२
१७९ है । इनके अतिरिक्त श्री मिळळ् कुरत्ति, शिरिविश कुरत्ति; नालकूर कुरत्ति, अरिट्टनेमि कुरत्ति, तिरुप्पत्ति कुरत्ति, कूडर् कुरत्ति, इळनेच्चुरक् कुरत्ति, इत्यादि साध्वी कवयित्रियों के नाम भी जो अपने-अपने वासस्थान या जन्मस्थान से सम्बन्धित हैं, शिलालेखों में उपलब्ध हैं।
ये नाम साधारणतया संन्यासिनियों या साध्वियों के लिए व्यवहृत होते थे । केवल जैन-साध्वियों को कन्ति, अव्बै, अम्मै, पैम्मै, शामि पॅरुमाट्टि, आशाळ , तलैवि, ऐयै, आदि कहा जाता था। इन नामों के निर्देश-स्थलों से उस समय जैन धर्म के सफल एवं सुव्यवस्थित प्रचार का पता चलता है । ये साध्वियां गृहणियों तथा अनाथ व विपदग्रस्त स्त्रियों में जैनधर्म का प्रचार करती थीं और विद्या, सदाचार, लोकव्यवहार आदि का उपदेश देती थी। श्रवणबेळगोळ के शिलालेखों में नागमति कंतियार, शशिमति कंतियार, नविलूर रात्रिमति कतियार, अनंतमति कंतियार, श्रमती कंतियार, मांगप्प कंतियार आदि साध्वियों के नाम मिलते हैं। ये साध्वी कवयित्रियां अधिकतर संस्कृत के नीति ग्रन्थों का अनुसरण करके, तमिल में छोटे-बड़े लघु पद्यग्रंथों को रचना करती थीं । अव्वैयार के नाम पर जो पद्य पाये जाते हैं, वे प्रसिद्ध तमिल कवयित्री ओवैयार के पद्यों से भिन्न हो सकते हैं। बाद में अन्य मताबलम्बी साध्वियों के लिए भी 'अव्वै' का विधान हुआ है।
विशिष्ट प्रबंध काव्य : 'कलिगत्त परणि' 'परणि' उस प्रबंध काव्य को कहते हैं, जिसमें सहस्र गजों को समरांगण में मारनेवाले वीरवर का प्रभावकारी वर्णन हो । 'परणि' का दूसरा अर्थ है 'काडुकिळाळ्' ( वन की अधिष्ठात्री देवी काली माता ) । 'परणि' (भरणी) काली देवी का जन्म-नक्षत्र होने के कारण, इस प्रबंध में मुख्यतया काली मां का अधिक वर्णन है और समरांगण की अधिष्ठात्री देवी के रूप में उसका सम्मान किया गया है। देवी का प्रदेश मरुभूमि और बीहड़ वन प्रान्तर, उसका भयावह मन्दिर, देवी के परिजन भूत-पिशाचादि, भूखे पिशाचों का आर्तनाद, उनमें नवागत पिशाच के द्वारा देश-विदेश के राजाओं का वर्णन तथा चरितनायक वीर नरेश का प्रभाव, उसकी समरसज्जा, समरांगण में प्राप्य मृत देहों का वर्णन जो पिशाचों के लिए स्वादिष्ट पदार्थ माना जाता है, समर और समरांगण का रोचक वर्णन, भोज-तैयार करने के प्रकार, सुस्वादु खाद्य-पेयादि का बंटवारा तथा मिल-जुलकर पिशाचों का भोजन करना-इत्यादि बातें परणि' प्रबंध में होती हैं।
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