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तमिल जैन साहित्य का इतिहास 'इयक्किहळ' (यक्षिणियाँ) और 'कवुन्तिहळ्' आदि नाम भी प्रचलित हैं । 'शिलप्पाधिकारम्' की प्रमुख नारी पात्र जैनसाध्वी कवुन्ती अडिहळ् (साध्वी) का उल्लेख उस काव्यप्रसंग में हुआ ही है । 'जीवकचिन्तामणि' में उपलब्ध प्रसिद्ध पद्यों के बारे में, उसके व्याख्याकार नच्चिनाक्किनियर ने लिखा है कि ये सब 'कवुन्तियार पाडल', अर्थात् कवुन्ती जी के पद्य हैं । नचिनाविकनियर के समय के पूर्व ही (ई० चौदहवीं शती के पूर्व) ये पद्य उस काव्य में स्थान पा चुके होंगे। उस कोमल महाकाव्य के अनुरूप, उसी स्तर पर काव्यसृजन की योग्यता उस साध्वी कवयित्री में थी। २. अव्वे
साध्वियों तथा संन्यासियों को अव्वै भी कहा जाता था। 'जीवकचिन्ता. मणि' में इस शब्द का प्रयोग बार-बार हुआ है। तमिल साहित्य में, जो 'अश्वैयार पाडलहळ' ( अव्वैयार के पद्य ) के नाम से मिलते हैं, वे साध्वियों के रचे पद्य होने चाहिए। गगनचारी जैन साधुओं की भांति, साध्वियां भी देशाटन करती हुई धर्म का प्रचार करती रहती थीं। अन्यनाम __ इनके अतिरिक्त, और भी अनेक साध्वी कवयित्रियां हुई होंगी। उनका स्पष्ट उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। शिलालेखों में, पिरुतिवि विटंग कुरत्ति ( ३५६।१९०९), और गुणकीति भटारकर् ( भट्टारक ) की छात्रा 'कनक वीर कुरत्तियार'२ दोनों कवयित्रियों के नाम पाये जाते हैं। चोलाधीश श्री मदुरै कोण्ड कोट्परकेसरि वर्मन् के शासनकाल में अरिष्टनेमी पटारर् ( भट्टारक ) नामक जैनमहापंडित थे। उनकी एक शिष्या यी पट्टिणी कुरत्ति, जो अच्छी कवयित्री थीं। स्त्री पाठशाला और कूप के बारे में एक शिलालेख में उल्लेख
१. पृथिवी विटंक गुर्वी का अपभ्रंश रूप है। तमिल में गुरु को 'कुरवर्' कहते हैं और उसके स्त्रीवाची शब्द के लिए 'कुरत्ति' का अभिधान है। आचार्याणी, उपदेशिका, अध्यापिका, साध्वी, विदुषी बादि अर्थों में 'कुरत्ति' का प्रयोग होता था। अतः इसे गुरु ( कुरवर् ) का स्त्रीवाची माना जा सकता है। किन्तु मुख्यतया साध्वी और संन्यासिनी के अर्थ में ही 'कुरत्ति' का प्रयोग होता है, जिस प्रकार साधु-संतों के लिए 'कुरवर' (गुरूजी) का व्यवहार होता है।
२. S. I. I. Vol. III, No. 92. ३. S. I. I. Vol. VI, No. 56.
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