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काप्पियम्-२
१७५ बीच, रानी अमृतमति ने भोजन में विष मिलाकर राजा और राजमाता ( सास ) दोनों को मार डाला। वे दोनों कई जन्मों तक पशु के रूप में भूमि पर पैदा हुए और अन्त में मुर्गे-मुर्गी के रूप में जन्मे । उस समय यशोधरन् का पुत्र यशोमति शासक था । एक जैन मुनि ने उसके पूर्व जन्मों का वृत्तांत बताया। व्याकुलचित्त यशोमति मन बहलाने के हेतु शिकार खेलने वन में गया और वहां मुनिवर ( जैन साधु ) सुदत्त के सन्निध्य में उनके उपदेशों से मुक्ति प्राप्त की। उसके एक पुत्र और पुत्री थे। वे ही क्रमशः यशोधरन् और उसकी माता थे, जो उस यशोमति के पिता और दादी थे।"
। अब उदय देश के नरेश मारिदत्तन को ज्ञात हो गया कि वे दोनों अपने पिता और बुआ हैं, और दादा और परदादी भी हैं। फिर बलि चढ़ाने का विचार त्यागकर, उस युवक साधु और उसकी बहन को आदरपूर्वक मुक्त किया। तदनन्तर मारिदत्तन् संन्यास ग्रहण कर, तपस्या करके मुक्ति का अधिकारी बना। मूल रचना
दसवीं शती में यह यशोधर कथा लोकप्रिय हुई। सोमदेवसूरि, वादिराजसूरि, पुष्पदन्त आदि जैन कवियों ने उस कथा को अपनी संस्कृत रचनाओं का विषय बना लिया। एक पद्य से पता चलता है कि पुष्पदन्त की रची संस्कृत रचना के आधार पर ही प्रस्तुत तमिल काव्य 'यशोधरकावियम्' लिखा गया था और उसके रचयिता का नाम था 'वेण्णावलुडैयार वेळ्' यद्यपि इनकी रचना का स्रोत संस्कृत ग्रन्थ रहा, तथापि अपनी विशिष्ट मौलिकता से कवि ने काव्य के समस्त अंगों को परिपुष्ट किया है।
जैनधर्म के अनुसार संगीत कामवासना या आसक्ति का कारण है। इस दृष्टि से कवि ने इस काव्य में एक महावत को गायक के रूप में प्रस्तुत किया और महारानी को उस पर मोहित बताकर यह सिद्ध किया कि संगीत आसक्ति का हेतु है। __ काव्यवर्णन के अनुसार, महावत ने जिस राग में गीत गाया था, उसका नाम मालवपंचम' था। इस 'पण' ( राग ) का उल्लेख केवल तीन सी वर्ष पूर्व के ग्रंथों में ही पाया जाता है, उससे पहले के ग्रंथों में नहीं पाया जाता। विद्वानों का मत है कि यह ग्रंथ संभवतः विजयनगर साम्राज्य के समय में रचा गया है।
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