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तमिल जैन साहित्य का इतिहास अतः इस दृष्टि से भी 'चूळामणि' चारों पुरुषार्थों का वर्णन होने के कारण महाकाव्य की ही श्रेणी में आता है।
लघुकाव्य : यशोधर काव्य पूर्वोक्त पञ्च लघु काव्यों ( जिन्हें रसकाव्य भी कह सकते हैं । ) में यशोधरकाव्य भी एक है। इसमें कुल ३३० पद्य हैं । सुकर्म दुष्कर्म के परिणामों को प्रकट करना तथा 'कर्म कः स्वकृतमत्र न भुङ्क्ते ?' ( कोन व्यक्ति इस जगत् में अपने किये कर्म का फल नहीं भोगता ? ) की वास्तविकता का समर्थन ही इस काव्य की प्रधान कथा है। काव्य कथा संक्षेप में इस प्रकार है :
उदय देश का नरेश मारिदत्तन् चण्डमारी ( चंडिका-सी बलिप्रिया देवी) को बलि द्वारा प्रसन्न करने के लिए युगल ( भाई भाई, भाई बहन आदि की जोड़ी ) की खोज कर रहा था। संयोग से उसके कर्मचारियों की दृष्टि में युवा जैन साधु अयरिषि और उसकी बहन अभयमति दोनों पड़ गये। बेचारे भाईबहन पंचपरमेष्ठी का स्मरण करते हुए बलि होने को सन्नद्ध हुए। उनकी प्रसन्न एवं गम्भीर मुखाकृति देख राजा मारिदत्तन् विस्मयाभिभूत हुआ । उसने उनकी उस मोहरहित एवं निलिप्त त्याग भावना का कारण पूछा, तो युवक साधुवर ने राजा को जैन तत्त्वों से अवगत कराया। दोनों (भाई-बहन) ने राजा के पूर्वजन्मों का विशद् वर्णन किया । संक्षेप में वह.पूर्वजन्म का वृत्तान्त इस प्रकार था-"अशोक नामक राजा बुढ़ापे के कारण अपने सफेद बालों को देखकर सांसारिक सुख-भोग से विरक्त हुआ और संन्यास ग्रहण कर लिया। उसका पुत्र यशोधरन् अपनी पत्नी अमृतमति के साथ राजगद्दी पर बैठा। उसके राज्य में अट्टपंगन् ( अष्टभंग ) नामक एक हाथीवान ( महावत ) था, जिसका कण्ठ स्वर बहुत मधुर था तथा उत्तम संगीतश था। महारानी अमृतमति ने एक दिन उसे गाते हुए सुना और निकट जाकर देखा। रानी का मन उस महावत पर रीझ गया और दोनों का संसर्ग दिनोंदिन बढ़ने लगा। इन दोनों के पारस्परिक प्रेम का पता जब राजा यशोधरन् को चला तो वह बहुत दुःखी हुआ और विरक्त होकर संन्यास लेने का विचार किया। राजमाता को इस बात का पता चला तो उसने पुत्र यशोधरन् को सलाह दी कि चण्डमारी देवी को बलि चढ़ाई जाय तो सब अमङ्गल दूर हो सकता है। राजा यशोधरन् अहिंसाप्रेमी था, अतः आटे का मुर्गा बनाकर बलि के लिए उसको मारने की युक्ति निकाल ली। किन्तु बलिकर्म के बाद वह सत्तू-कुक्कुट जीवित हो उठा और दो टुकड़ों के रूप में ही छटपटाते हुए करुण क्रंदन करता रहा । इसी
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