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________________ काप्पियम्-२ १७३ साहित्य-परम्परा के अथवा उस मोहक काव्य-प्रवाह के अनुयायी बने । उनमें प्राकृत काव्य 'चूळामणि' के रचयिता तोलामोळि देवर् अग्रगण्य दीखते हैं । चूळामणि काव्य का कोई महान् उद्देश्य या उच्च आदर्श नहीं रहा । केवल, राजा पयापति ( प्रजापति ) को जगद्वन्द्य तथा ख्याति और समादर प्राप्त 'चूडामणि' के रूप में चित्रित करना ही कवि का मुख्य उद्देश्य रहा है। काव्य के अन्त में यद्यपि पयापति का उत्कर्ष दिखाया गया है, तथापि समूचे काव्य में उनके कनिष्ठ पुत्र तिविट्टन् ( त्रिपृष्ठ ) का चरित्र-चित्रण ही, काव्य की गति एवं सौन्दर्य का परिचायक है। समग्र काव्य से यही भाव उत्पन्न होता है कि तिविट्टन के आगे पयापति का अस्तित्व फीका पड़ जाता है। फिर भी, कृष्णसम तिविट्टन् जैसे महिमावान् एवं प्रभावशाली पुत्र के पिता होने का गौरव राजा पयापति को अवश्य प्राप्त होता है। ___ कवि की मधुर वाणी के प्रभाव से ये छोटी-मोटी टियाँ, जो मूल कथा के प्रवाह में आ गयीं, लुप्तप्राय हो जाती हैं। संस्कृत के शब्द, वाक्यविन्यास एवं भाव पाये जाने पर भी, तमिल की मधुरिमा के प्रभाव के आगे वह सब तिरोहित हो जाता है। 'ऐंपेरुम् काप्पियंगळ्' (पंच महाकाव्यों ) के नाम हैं, शिलप्पधिकारम्, जीवकचिन्तामणि, मणिमेखले, वळेयापति और कुण्डलकेशी। इनमें शिलप्प. धिकारम्, चिन्तामणि और वळयापति–तीनों जैन काव्य हैं । अन्य दोनों बौद्ध काव्य हैं। 'ऐंचिरु काप्पियंगळ्' (पंच लघुकाव्यों ) के रूप में, चूळामणि, नीलकेशी, यशोधर काव्य, उदयणकुमार काव्य और नागकुमार काव्य माने जाते हैं। इनमें 'चूळामणि' को छोड़कर अन्य-ग्रंथ सफल काव्य नहीं कहे जा सकते । 'नीलकेशी' के बारे में पहले ही वर्णन किया जा चुका है । 'उंदयण कुमार काव्य' बृहत्कथा नहीं है। वह केवल ३६७ पद्योंवाली रचना है। नागकुमार काव्य तो नाममात्र का है। 'ऐंपेरुम्काप्पियम्' का नामविभाजन प्रसिद्ध तमिल विद्वान् मयिलनाथर के समय में ही ( १३-१४ वीं शती) हो चुका था। इसी समय 'ऐंचिककाप्पियम्' का भी नामनिर्देश हुआ होगा। फिर भी, 'चूळामणि' काव्यलक्षण एवं रचनाशिल्प की दृष्टि से महाकाव्यों की कोटि में रखने योग्य हैं। महाकाव्य ( पेरुंम् काप्पियम् ) का लक्षण बताते हए विद्वानों ने लिखा है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चारों पुरुषार्थों का समग्र वर्णन जिसमें किया जाता है, वह महाकाव्य है और उनमें एक-दो की न्यूनता हो, तो वह 'चिरुकाप्पियम्' ( लघुकाव्य ) की कोटि में आता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002100
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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