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तमिल जैन साहित्य का इतिहास
राजा चेन्दन के बारे में वर्णन है, 'चेन्दनन्नुम् तूमान् तिमिळिन् किळवन्', अर्थात् चेन्दन नाम राजकुलभूषण और तमिल प्रेमी । 'तमिल- प्रेमी' के विशिष्ट विशेषण के कारण यह राजा पांड्यवंशी हो सकता है । यह विशेषण प्रायः पांड्य राजाओं का ही है और 'चेन्दन' नाम केवल पांड्यों के लिए व्यवहृत हुआ है ।
सातवीं शती के पूर्व भाग में 'जयन्तवर्मन् अवनि चूळामणि मारवर्मन् ' नामक पांड्यनरेश हो गया था, जो प्रसिद्ध कून् पांडयन् का पिता था । इस ऐतिहासिक आधार पर कुछ विद्वान् मानते हैं कि 'चूळामणि' उस पांड्य राजा के नाम पर रचा होना चाहिए । इसलिए उसका रचना काल सातवीं शती मानना उचित होगा ।
किन्तु मयिलेनाथर आदि व्याख्याकारों का मत है कि अपनी उत्कृष्टता के कारण ही ग्रन्थ का नाम 'चूळामणि' ( चूडामणि ) पड़ा, जो सार्थक भी है । इसके अतिरिक्त इस काव्य के चरितनायक तिविट्टन ( त्रिपृष्ठ ) के पिता पयापति ( प्रजापति ) की, अन्त में 'चूलामणि' ( चूडामणि - जैसे सर्ववंद्य एवं सर्वश्रेष्ठ ) कहकर प्रशंसा की गयी है । कवि का ही वाक्य देखिये, 'उलहिन् मुडिक्कॉरु चूळामणि आनान्; अर्थात् जगत् के सिर के लिए ( वह राजा पयापति ) वस्तुत: चूळामणि ( उत्तम अंग का उत्तम आभूषण ) बन गये ! ' इसी मंगलवाक्य के साथ काव्य समाप्त होता है ।
कवि ने इस काव्य में एक स्थान पर रत्नपल्लव नगर को भी 'चूळामणि'' बताया है और राजा का नाम भी 'चूळामणि' लिखा है । चरितनायक तिविट्टन के सिर की कांति का वर्णन करते समय भी उन्होंने 'चूळामणि' का उपयोग किया है । अतः कवि का प्रियतम शब्द जो काव्य के भीतर बहुश:प्रयुक्त हुआ है, महाकाव्य का भी शीर्षक बन गया है ।
एक 'तनिप्पाडल्' ( फुटकल पद्य में कहा गया है कि विजयन् कारवेट्टि अरैयन् ' की अभ्यर्थना पर तोलामोळि देवर् ने 'चूळामणि' काव्य की रचना की थी । 'कारवेट्टि' शब्द 'काडु वेट्टि' ( जंगल का नाश करनेवाला ) का अपभ्रंश रूप है | यह नाम पल्लवनरेशों का उपाधिसूचक है । उस नाम में, 'विजयन्' शब्द उसका नाम न होकर, 'जीतनेवाले' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ लगता है । तब पूर्वोक्त 'पाथिरम्' ( प्रारंभिक परिचायक पद्य ) में वर्णित वेन्दन् को ही उस नाम से निर्दिष्ट किया गया हो सकता है, 'तमिळिन् किळवन् ( तमिल का प्रेमी या अभिभावक ) शब्द केवल पांडघनरेश का ही निर्देशकः
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