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काप्पियम्-२
१६९ लोगों के मन में जैन धर्म को केवल वैराग्य, संन्यास, तपस्या आदि का ही पोषक होने की जो धारणा थी, उसको बदलकर 'लौकिक आनंद के होते हुए भी भोग-उपभोगों में निमग्न होने पर भी जैन धर्म के सहारे मुक्ति-प्राप्ति सहज सम्भव है'-इस धारणा को स्थिर कर दिया। इसीलिए भावुक कविवर ने, जो स्वयं सर्वसामान्य संन्यासी साधु थे, इस समूचे काव्य को 'वैवाहिक ग्रन्थ' ही बना दिया।
इस काव्य का मुख्य संदेश अहिंसा धर्म का समर्थन है। गायों को जंगली भीलों से छुड़ा लाने के प्रसंग में जीवकन् ने सच्चे अहिंसक का परिचय दिया । यद्यपि अन्त में कुटिल और क्र र अमात्य कट्टियंकारन् ( काष्ठांकारिक ) की हत्या होती है, फिर भी राजनीति की दृष्टि से वह शत्रुवध न्याय्य ही माना जाता है। कविवर ने सच्चे अहिंसक साम्राज्य का चित्रण किया है। शासन रीति, प्रजापालन आदि सब प्रकार के राजकार्यों में अहिंसा और स्नेह की ही प्रधानता बतायी गयी है । कविवर तिरुत्तक्क देवर की तरह आदर्श साम्राज्य का सपना कम ही कवियों ने देखा और उसका वर्णन किया और किसी ने किया हो, तो भी उनके बाद ही इसमें जैनधर्म को गर्व करने का अधिकार है ही; फिर भी कविवर की मौलिक प्रतिभा का भी लोहा मानना ही पड़ेगा।
चूळामणि
महाकाव्य 'जीवक चिन्तामणि' के प्रकरण में पहले बताया गया है कि श्रवणबेळगोळ से प्राप्त शिलालेख में 'चूळामणि' के रचयिता का नाम 'वर्द्धमान देवर' पाया जाता है। किन्तु तमिल में यह नाम नहीं मिलता; तमिल का रूप है, 'तोला मोळितेवर' । कुछ विद्वानों का मत है कि यह लेखक का दूसरा नाम हो सकता है। यह भी विवादास्पद है कि श्रवणबेळगोळ के शिलालेख में जिस 'चूळामणि' ग्रन्थ का उल्लेख है, वह तमिल काव्य है या दूसरा । अतः उसके आधार पर इस तमिल काव्य का कालनिर्णय करना ठीक नहीं होगा।
'चूळामणि' के उपोद्घात पद्य 'पायिरम्' कहा गया है कि चेन्दन नामक तमिल प्रेमी नरेश की सभा में यह ग्रन्थ प्रथमतः प्रकाशित किया गया।'
१. किसी अन्य को प्रथमतः सभा में प्रकाशित करने को तमिल में 'अरंगेद्रम्' (समारोहण) कहते हैं । उस सभा में बड़े-बड़े समालोचक विद्वान् होंगे । उनकी स्वीकृति एवं अनुमोदन प्राप्त करने के बाद ही वह ग्रन्थ जनता द्वारा समात होता था।
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