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काप्पियम्-२
१६७ दक्ष ) की उपाधि मिली हो। अतः प्रस्तुत महाकाव्य 'जीवकचिन्तामणि' को नवीं शती की रचना मान सकते हैं। दसवीं शती के छंदशास्त्र 'याप्परुगल. वृद्धि' में इस काव्य के उद्धरण मिलते हैं। इसलिए इसे दसवीं शती के पूर्व की रचना मानने में कोई आपत्ति नहीं है।
___ नच्चिनाक्किनियर ने अपनी व्याख्या में तिरुत्तक्क देवर के कुल के बारे में यह संकेत किया है, ... मुन्नीर वलंपुरि ( चोळकुलरूपी सागर में उत्पन्न उत्तम शंख है यह कवि )।" अतः मालूम होता है कि वे चोळकुलभूषण थे। पारम्परिक अनुश्रुति भी इस बात का समर्थन करती है ।
अरिञ्जयन्
चरितनायक जीवकन् की माता विजयादेवी की महिमा में कविवर ने लिखा है- "अर्शविलाप पुरवि sळ्ळत्तु अरिजयन् कुलत्तुळ तोन्ड्रि वशैयिला वरत्तिन् वंदाळ्..." ( चिन्तामणि-२०१.) अर्थात् “अत्यधिक अश्व समूह के स्वामी वीरश्रेष्ठ अरिजयन् के कुल में जन्मी और पवित्र वरदान के रूप में आयी यह विजयादेवी।" ___ अरिजयन् चोळराजाओं की उपाधि है। अरीन् ( शत्रुओं को ) जयतिइति ( हरा देता है - इस कारण से )- यह 'अरिजय' नाम पड़ा। इसी को 'अरिन्दमन्' भी कहते हैं, जो व्यवहार में था। 'अरिकुलकेसरी' ( शत्रुसमूह के लिए सिंह ) भी चोलों का उपाधिनाम था। प्रथम विख्यात चोलनरेश अरिञ्जयन् के एक पुत्री थी जिसका नाम 'अरिञ्जकै पिराट्टि' था। इतिहास साक्षी है कि अरिञ्जयन् के पुत्र चोलाधीश राजराजन् ने अपने पिताजी की स्मृति में 'अरिजयेश्वरम्' नामक बड़े मंदिर का निर्माण कराया और इनके नाम पर 'अरिन्द (या अरिज) मंगलम्' नामक नगर भी बसाया । इनके बाद 'अरिजयन्' नाम के और कोई चोल नरेश नहीं हुए। इनका समय दसवीं शताब्दी था । 'अरिञ्जयन्, अरिन्दमन् और अरिकुलकेसरी' नाम लोगों को अथवा स्वयं राजा को बहुत पसंद आये होंगे; इसलिए तमिल नामों को छोड़, उस नाम से वे प्रख्यात हुए। ये परान्तकन् (प्रथम) के पुत्र थे और आदित्यचोळन् ( प्रथम ) के पौत्र थे। इनके और इनके पूर्वजों के शासन काल में वोरता, युद्धकौशल आदि की प्रधानता रही है। इनके पूर्वज विजयालय चोळन् की वीरता और शूरता का वर्णन करते हुए इतिहासकारों ने कविवर्णन को सादर उद्धत किया, 'आप अपने वक्षस्थल में ९६
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