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तमिल जैन साहित्य का इतिहास क्या नीरस धार्मिक तत्त्वों का विवेचन-सब जगह कवि की प्रतिभा उन्मुक्त रूप से प्रकट हुई है। 'काव्यं यशसे अर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये । सद्यः फल निर्वृत्तये कान्तासम्मिततया उपदेशयुजे ।'-इस काव्यलक्षण का सचमुच किसी सर्वांगपूर्ण कृति में दर्शन करना हो, तो वह यहीक्रहाकाव्य 'जीवकचिन्ता. मणि' है, जो कई महाकवियों के लिए आदर्श स्तंभ था और प्रेरणा-स्रोत भी। 'चिन्तामणि' का रचनाकाल
श्रवणबेलगोल में प्राप्त एक शिलालेख में आचार्यों का उल्लेख मिलता है। वे हैं महापुराण के उत्तर भाग के रचयिता गुणभद्र, इनके बाद चिन्तामणि आचार्य और इनके परवर्ती श्रीवर्द्धदेव जो 'चूळामणि' (मूलग्रन्थ ) के रचयिता थे, आदि । आचार्य गुणभद्र तो राष्ट्रकूट नरेश अकाल वर्ष के समकालीन थे। अकालवर्ष नवीं शती के अंत में अभिषिक्त हुआ। प्रस्तुत महा. काव्य 'जीवकचिन्तामणि' के कवि अपने नाम के अंत में 'देवर' शब्द को लगाते थे । इसलिए पता चलता है कि ये 'देवगण' के थे जो जैन द्राविडसंव का एक भाग था। कवि का नाम तिरुत्तक्क 'देवर' संभवतया इसीलिए पड़ा कि वे द्राविड संघ के अंतर्गत देवगण के थे। 'शिरप्पु पायिरम्''
इसमें एक अंश यह है, "वण पॅरुवंचिप् पॉय्यामोळिप्पुहळ मैयरु चीत्ति तिरुत्तक्क मुनिवन् ।" अर्थात् 'प्रख्यात वंचिदेश ( आजकल करवूर के नाम से मशहूर ) के नरेश पॉय्यामोलि द्वारा अभिनंदित और मान्यवर तिरुत्तक्क मुनिवन् ( मुनि )"। कुछ विद्वानों का मत है कि यह पॉय्यामोळि 'सत्यवाक्' का अनुवाद हो सकता है। इतिहास से पता चलता है कि सत्यवाक् नामक गंगनरेश दसवीं शती के पूर्व भाग में शासनारूढ़ था। इसने 'वळ्ळि मल' ( रजत गिरि ) पर एक जिनमंदिर खड़ा किया। वंचि प्रदेश, जो करुवूर के नाम से प्रसिद्ध है, चोल और चेर राज्यों के सम्मिलित भाग को कहते हैं। 'वंचि' का दूसरा अर्थ है समरयात्रा ( चढ़ाई )। विशिष्ट युद्ध-कौशल के कारण भी संभव है, उक्त गंगनरेश को 'वणुपुकळ वंचि' ( समर यात्रा में
१. 'शिरुप्पु पायिरम्' उसे पद्य को कहते हैं, जो ग्रन्थकार के गुरू, सहपाठी, योग्य शिष्य और निपुण व्याख्याकार-इनमें से किसी एक के द्वारा ग्रन्थ और ग्रन्थकार के बारे में रचा जाता है, इससे ग्रन्थ तथा ग्रन्थकार का परिचय संक्षिप्त में मिल जाता है ।
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