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'काप्पियम्'-२ जीवक चिन्तामणि यह पंच महाकाव्यों में से एक है जो सर्वसाधारण को ही नहीं, उच्च कोटि के महाकवियों को भी मुग्ध कर चुका है । प्रसिद्ध शैव पंडित शंकर नमश्शिवायर ने लिखा है, 'उपलब्ध महाकाव्यों में यह सर्वांगसुन्दर होने के कारण, इसका नाम 'चिन्तामणि' उचित ही है।' किन्तु ग्रन्थ का नाम, चरितनायक जीवकन् के जन्म के समय उसकी जननी राजमहिषी द्वारा कहे गये 'चिन्तामणिये किटत्तियाय ( तुम मुझे चिन्तामणि की ही तरह प्राप्त हुए हो ) वाक्य के आधार पर रखा गया है। फिर भी उक्त विद्वान् का अभिमत भी सार्थक है।
इस काव्य को 'मणनूलशुभविवाह-ग्रंथ' भी कहते हैं। कारण यह है कि समूची काव्यकथा कई वैवाहिक घटनाओं तथा आयोजनाओं से भरी है । इसके अतिरिक्त चरितनायक जीवकन् के विद्याभ्यास को 'सरस्वती से विवाह', युद्ध में विजयी होने की घटना को 'विजयश्री का पाणिग्रहण', राज्याभिषिक्त होने को 'भमि के साथ परिणय' और मोक्षप्राप्ति को 'मुक्तिदेवी के साथ विवाह'इसी प्रकार प्रत्येक घटना को कवि मङ्गल विवाह के रूप में ही चित्रित करते हैं । इस महाकाव्य के रचयिता थे सुप्रसिद्ध जैन साधु तथा कविवर तिरुत्तक्क देवर । काव्यकथा
सरयूनदी के तटवर्ती एमांगदम् ( हेमांगदम् ) देश को राजधानी राजमापुरम् ( राजमहापुरम् ) में राजा सच्चंदन ( सत्यंधर ) का शासन था । वह अपनी रानी विजयादेवी के साथ कामभोग में इतना आसक्त हो गया कि शासन का सारा भार महामन्त्री कट्टियंकारन् ( काष्ठांकारिक ) को सौंप दिया । कुटिलमति महामन्त्री ने राजा को छल से मारकर राज्य का शासन अपने अधिकार में कर लिया। जब राजा सच्चंदन के पास कार्य अधिकार नहीं रहा
और विपत्ति सामने आयी तब उसने अपनी महिषी को एक मयूरविमान पर बिठाकर नगर से बाहर भेज दिया। उस समय वह पूर्ण गर्भिणी थीं। दुःखाधिक्य से देवी अर्धमूच्छित हो गयीं और दैव योग से मयूरविमान राजधानी के सीमावर्ती श्मशान में उतर गया। वहां विजयादेवी को प्रसवपीड़ा
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