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काप्पियम् - १
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दुःख की बात है कि यह सुन्दर काव्य पूरा नहीं मिला, प्रारम्भ और अन्य बीच के ही अंश, जिनको भी अविच्छिन्न
के अंश अब तक उपलब्ध नहीं हुए । नहीं कहा जा सकता, अब पुस्तकाकार में मिलते हैं ।
रचयिता
काव्यकार कोंकुवेरि जैनाचार्य थे । काव्य में कई स्थानों पर जैनतत्त्वों का वर्णन प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से कवि ने किया है । ये कोंकुमंडलम् के 'कुरुम्पु क्षेत्रवर्ती विजयमंगलम् नामक स्थान में पैदा हुए। एक अनुश्रुति के अनुसार कविवर ने इस काव्य को पूरा करने के लिए तीन बार जन्म लिया, तब जाकर यह काव्य पूरा हो पाया ।
अडियावर्कु नल्लार आदि श्रेष्ठ विद्वानों ने इस काव्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। अनुमान है कि कोंकुवेळिर आचार्य बज्रनन्दी के संघ में विद्यमान थे ।
यह पहले ही बताया जा चुका है कि यह काव्य गुणाढ्यकृत 'बृहत् कथा' पर आधारित है। आन्ध्रनरेश की सभा के कविवरों में गुणाढ्य भी एक थे । उन्होंने ही पैशाची भाषा में 'बृहत् कथा' की रचना की। ये ई० प्रथम शती के थे । शूद्रक नामक नरेश ने 'वीणावासवदत्तम्' नामक नाटक लिखा । इसका तमिल में अनुवाद किया था कांचीपुरम् के एक कथाशिल्पी ने जो कवि दण्डी का मित्र था । इसका उल्लेख दण्डी ने अपने 'अवन्ति सुन्दरी कथा' में किया है । दक्षिण के नाटककारों ने भास के नाटकों में से वासवदत्ता की कथा पर कुछ रचनाएँ की हैं । महाकाव्य 'मणिमेखले' में भी वासवदत्ता - आख्यान का उल्लेख है । प्रसिद्ध वैष्णव सन्त कवि तिरुमंगै आळ्वार ने अपने 'चिरिय तिरुमडल्' नाम पद्य-संग्रह में वासवदत्ताकथा की चर्चा की है । अतः यह बात जरूर स्पष्ट होती है कि उदयण और वासवदत्ता की कथा तमिलनाडु में भी सर्वत्र कही- सुनी जाती थी और अपनी लोकप्रियता के कारण, जैसे कि कालिदास ने भी 'मेघसन्देश' में कहा था- - उदयणकथाकोविदग्राम वृद्धान् जनमन की भावुक संवेदनाओं को मुग्ध कर रही थी ।
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इस सुन्दर काव्य के प्रणेता कोंकुवेळिर जैन द्रमिळसंघ के विद्वान् थे । यह संघ कर्णाटक में ही उन्नत दशा में था । कोंकुनाडु कर्णाटक और ठेठ तमिलनाडु का सीमाप्रदेश है । अतः उस संघ का पूरा प्रभाव उन पर परिलक्षित होता है । कुछ विद्वानों का मत है, ई० ५वीं या ६ठीं शती के गंगनरेश दुर्विनीत ने संस्कृत में एक 'बृहत्कथा' की रचना की, जिसमें अन्य 'बृहत् कथा' ग्रन्थों की
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