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काप्पियम्-१
शिलालेखों के आधार पर विद्वान् लोग इसी निर्णय पर पहुँचे हैं कि आजीवकमत तमिलनाडु में अर्वाचीन चोल राजाओं के शासनकाल में भी प्रचलित था। यह तो निश्चित है कि नीलकेशी काव्य बौद्ध महाकाव्य 'मणिमेखल' के बाद ही रचा गया था। बौद्धों के साथ हुए प्रबल विरोध में इस जैन ग्रन्थ की रचना हुई है। ई० सातवीं शती में चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रावृत्तान्त में लिखा है कि तमिलनाडु में बौद्धधर्म का प्रसार बहुत कम हो गया है । इससे यह बात स्पष्ट होती है कि उसके पर्यटन-काल के पूर्व ही 'नीलकेशी' ग्रन्थ रचा गया होगा, क्योंकि उसके रचनाकाल में बौद्ध धर्म का काफी प्रभाव तमिल देश में था।
__ वळ यापति 'वळेयापति' तमिल के पंच महाकाव्यों में अंतिम माना जाता है। इस काव्य की कथा पूर्ण रूप में उपलब्ध नहीं है । थोड़े पद्य ही अपने नामशेष काव्य का परिचय देते हैं। ये पद्य भी समग्र रूप में कहीं एक स्थान पर नहीं मिले । ये सब सुप्रसिद्ध विद्वान् व्याख्याकार अडियाक्कू नलार, इळंपूरणार, नच्चिना' इनियार और परिमेललगर की व्याख्याओं में बिखरे हुए थे। ये करीब अस्सी पद्य थे जिनका संकलन शन्तमिळ' नामक पत्रिका ने किया था। ___इस संग्रह के पद्यों में 'निक्कन्त वेडत्तु इरुडिगणम्' (निर्ग्रन्थ वेशधारी ऋषिगण ) 'अरिवन्' ( जो ज्ञान पा गया हो-जिनदेव ) आदि प्रयोग मिलते हैं । अतः इसे एक जैन ग्रन्थ मानने में कोई आपत्ति नहीं। इन पद्यों में कुछ तो चार चरणवाले हैं, कुछ दो-दो चरणवाले तथा कुछ कुछ छह चरणवाले भी हैं । तमिल के छन्दशास्त्र 'याप्परुंगलवृत्ति' से प्राचीन होने के कारण इसका रचनाकाल दसवीं शती से भी पूर्व का सम्भव है ।
पूरा काव्य न मिलने से, इसके रसास्वादन की सुविधा नहीं है। जितने पद्य मिले, उनसे इस निर्णय पर पहुंचते हैं कि यह ग्रन्थ प्रांजल शैली में धार्मिक विषयों का वर्णन करनेवाला कोमल काव्य रहा होगा। इसकी श्रेष्ठता तथा विशेषता इससे प्रकट है कि प्रकांड पंडितों ने अपनी व्याख्याओं में इसके पद्य सादर उद्धृत किये हैं। सबसे अनूठी बात यह है कि 'तक्कयाळ परणि' (तक्ष याग परणि) नामक प्रसिद्ध प्रबन्ध ग्रन्थ के व्याख्याकार ने उसके रचयिता 'कविचक्रवर्ती ओट्टक्कूत्तर' के बारे में आदरपूर्वक लिखा है कि 'कवियळगु वेण्डि बळेयापतियै निनत्तार अर्थात् कवितामाधुर्य की खोज करते हुए कवि ने (ओट्टकूत्तर ने) 'वळयापति' काव्य का मनन किया ।'
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