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तमिल जैन साहित्य का इतिहास वेश बदलकर चन्द्र मुनि के पास पहुंची। वे तपस्या में लीन थे। दोनों स्त्रियों ने मुनि को विचलित करने के कई प्रयत्न किये; पर मुनि को वे डिगा न सकी । नीली विदुषी थी और मुनिवर की अचंचल निष्ठा देख अपनी पराजय मान गयीं । तत्काल ही उनकी शिष्या बनकर, उनसे धर्मोपदेश सुनने का सुयोग भी प्राप्त किया। क्रमशः अहिंसाधर्म पर उसकी आस्था दृढ़तर होती गयी। जैन धर्म की पारंगत विदुषी के रूप में उसका नाम सर्वत्र विख्यात हो गया। नीली 'नीलकेशी' के नाम से घूम-घूमकर अहिंसा धर्म का प्रचार एवं प्रभावना करने लगी। इसी धर्मयात्रा में प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षुणी कुण्डलकेशी को नीलकेशी ने वादविवाद में पराजित किया। बाद में अर्धचन्द्र, मोग्गलायन आदि बौद्धाचार्यों को परास्त किया । फिर आजीवक, सांख्य, भेदवादी और लोकायतवादी से भी शास्त्रार्थ कर विजयी हुई । सब पराजित मतवादियों को अपने बुद्धिबल से जैनधर्मावलंबी बना दिया। ऐसी अप्रतिहत प्रतिभा एवं वादकुशलता सम्पन्न नीलकेशी को राजा ने प्रधान धर्म संस्थापिका के रूप में घोषित किया और उसका सब जगह समादर कराने की घोषणा करायी । इस शुभ वार्ता के साथ यह कथा समाप्त होती है। 'नीलकेशी' के व्याख्याकार
इस ग्रन्थ की महत्ता इसकी पाण्डित्यपूर्ण व्याख्या से ही प्रकट है । व्याख्याकार का नाम है समयदिवाकर वामन मुनिवर । ये ही मेरुमन्थर पुराणम् ( प्रसिद्ध तमिल जैन ग्रन्थ ) के रचयिता हैं। ये मल्लिसेनाचारियर नाम से प्रसिद्ध थे। इनके शिष्य पुष्पसेनाचार्य थे, जो विजयनगर के राजा हरिहर के मंत्री हिरुकप्प के गुरु थे। इनका समय चौदहवीं शती है। बतलाया जाता है कि वामन मुनि 'तिम्प्परुत्ति कुन्ड्रम्' में रहते थे। नीलकेशी' का रचनाकाल
प्रसिद्ध तमिल छंदशास्त्र 'याप्पेरुंगलवृत्ति' की व्याख्या में 'नीलकेशी' की चर्चा है जो दसवीं शती की रचना है । अतः यह निश्चित है कि उससे पूर्व ही इस काव्य का प्रणयन हो चुका था। इस ग्रन्थ में अर्वाचीन मत, अद्वैत वेदान्त मत का उल्लेख नहीं मिलता। शैवसंत ग्रन्थ 'तेवारम्' में आजीवक मत का उल्लेख नहीं है, पर 'नीलकेशी' में है। अतः यह 'तेवारम्' के पूर्व की ही रचना है। 'तेवर' के नाम से प्रसिद्ध तिरुवळ्ळवर के एक शिष्य ने ही इस 'नीलकेशी' ग्रन्थ की रचना की थी। तमिल के प्रसिद्ध जैन विद्वान् श्री ए. चक्रवर्ती नायिनार इस निर्णय पर पहुंचे हैं।
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