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तमिल जैन साहित्य का इतिहास 'भिक्षुणी बनी एक निस्स्वार्थ सेविका का चरित्रचित्रण इस काव्य में है। वर्ण व्यवस्था की निन्दा, बौद्धधर्म की उपादेयता एवं साधारण जनता तक के लिए सुलभता का वर्णन, बौद्ध तत्त्वों का तर्क-पूर्ण समर्थन और अन्य धर्मों का खंडन भी इस 'मणिमेखल' काव्य में हुआ है।
_इस काव्य में नालन्दा विश्वविद्यालय के प्रधान पंडित दिङ्नाग और धर्म“पाल के तार्किक मन्तव्यों में से कुछ अंश अनुवाद-रूप में उल्लिखित हैं। ये अंश बाद में प्रक्षिप्त रूप में जोड़ दिये गये मालूम होते हैं। .
यद्यपि यह बौद्ध महाकाव्य है, तथापि इसमें जैन धर्म का भी सुन्दर वर्णन है। घटना की परम्परा को देखने पर यह स्पष्ट मालूम होता है कि यह काव्य 'शिलप्पधिकारम्' का उत्तरार्द्ध है और उसके प्रणयन के बाद ही इसकी रचना हुई है। 'मणिमेखले' ग्रन्थ का धार्मिक पक्ष ___ इसमें प्रथम गाथा 'विळा अरै कातै' (पर्व का वर्णन करनेवाली गाथा ) में यह घटना वर्णित है
'सुधामति के पिता जो ब्राह्मण थे, भीषण उदर रोग से पीड़ित होकर जैन मन्दिर में आश्रय लेने गये। पर जैनों ने अन्य धर्मी को अपने यहां रखना नहीं चाहा और तत्काल उस रोगी ब्राह्मण को बाहर कर दिया। फिर जब वह रोगी रक्षा की प्रार्थना करते हुए वीथी में भटकता रहा, तब बौद्धों ने दया कर बौद्ध-विहार में आश्रय दिया और यथोचित उपचार की व्यवस्था की।' ___इस घटना से बौद्धों की उदारता का परिचय तो मिलता ही है, लेकिन जैनों की धर्म-परिरक्षण की जागरूकता भी प्रकट होती है। ___'मणिमेखल' की २७वीं गाथा 'समयक्कणक्कर तंतिरम् केट्ट कातै' (धर्माचार्यों से मणिमेखला द्वारा पूछी गयी धार्मिक बातों की गाथा ) में बताया गया है कि मणिमेखला ने प्रमाणवादी, शैववादी, ब्रह्मवादी, वैष्णववादी, वैदिक ( वेदवादी), आजीवक, निगंठवादी, सांख्यवादी, वैशेषिकवादी और भूतवादी-इन मतवादियों से उनके धार्मिक तत्त्वों को समझाने की अभ्यर्थना की और उन विद्वानों ने भी मणिमेखला की प्रार्थना पूरी की। सब धर्म-मतों पर गम्भीर विचार करने के उपरान्त वह साध्वी इस निर्णय पर पहुँची कि बौद्ध-धर्म अधिक व्यवहारसुलभ एवं श्रेयस्कर है । ... इस गाथा के अन्त में मणिमेखला के बारे में कवि ने लिखा है, 'ऐ वहै समयमुम् अरिन्दनळ ।' (पांच प्रकार के सम्प्रदायों या मतों को भी जान
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