SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 168
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५५ काप्पियम्-१ की कोख से उत्पन्न लड़की थी मणिमेखलै । इस काव्य में बौद्ध तत्त्वों की प्रचुरता है, इसलिए बौद्ध काव्यग्रन्थ के रूप में इसकी गणना होती है । चरितनायिका मणिमेखले अपने रूपसौन्दर्य पर मोहित चोल युवराज उदयनकुमार की प्रेमभिक्षा को भी अस्वीकार कर देती है और अपने मन को जबरदस्ती कठोर बना लेती है। उसकी महत्त्वाकांक्षा भोग-उपभोग की पंकिल जीवनधारा से आकृष्ट नहीं थी। इस जीवन की नश्वरता और दैहिक सुखों की क्षणभंगुरता से सदा के लिए मुक्ति पाकर अजर-अमर ( निर्वाण ) पद की प्राप्ति की अदम्य आकांक्षा थी। बुद्धदेव के 'आर्य सत्यों' ने उसके अंधकाराच्छन्न जीवनपथ में ज्वलंत दीपस्तम्भ खड़ा कर दिया। 'आत्म हिताय' की अपेक्षा 'लोक हिताय' की उन्नत प्रेरणा उसे सदा कर्मपथ पर अग्रसर करती रही । इसीलिए प्राणिमात्र के उद्धार के लिए और अकालपीड़ित जनता की बुभुक्षा मिटाने के लिए मणि मेखले अपना सर्वस्व त्यागकर भिक्षुणी बनकर निकल पड़ी। मानो उसकी पुनीत अभिलाषा जानकर ही भगवान् ने उसे 'अमुद सुरभि' (अमृतसुरभि) नामक अक्षयपात्र सुलभ कर दिया । उसी के सहारे उस साध्वी ने बहुत लोकोपकार किया। कई पथभ्रष्टों को सत्यपथ पर लगाया। ___ 'मणिमेखलै' काव्य के रचयिता का शुभनाम था शीत्तलै चात्तनार । वे तमिल के प्रकाण्ड विद्वान् और मधुरवाक् कवि थे। बौद्ध धर्मावलम्बी तो थे ही किन्तु 'शिलप्पधिकारम्' के रचयिता श्री इळगो अडिगळ के मित्र होने पर भी उन-जैसे उदार एवं तटस्थ नहीं रह सके । कण्णकि-कोवलन् की कथा को इन्होंने ही इळ गोअडिगळ को सुनाया; अतः ये पूरी कथा जानते थे और घटना के समसामयिक भी थे। इस बात का भी प्रमाण मिलता है कि इन्होंने इळगोजी से यह प्रार्थना की कि 'आप सती कण्णकि की पुनीत कथा पर काव्य रचना कीजिए और मैं कोवलन् की प्रेमिका, नर्तकी गणिका माधवी की पुत्री आदर्श गुणवती मणिमेखल के चरित को काव्य की भाषा दूंगा।' इळगो जी ने अपने मित्र की अभ्यर्थना स्वीकार कर महाकाव्य 'शिलप्पधिकारम्' की रचना की। विद्वानों का मत है कि श्री चात्तनार ने उदारता, सर्वधर्मसमरसता सम्बन्धी अपनी कमी का स्वयं अनुभव करके ही उस महत्त्वपूर्ण पुनीत कार्य को निसर्गोदार इळगो जी के हाथ में सौंपा होगा। इस 'मणिमेखले' काव्य में पिटक ग्रन्थों की प्रचुर पौराणिक बौद्ध कथाएँ पायी जाती हैं। इसी हेतु, इसे कई अलौकिक घटनाओं का संकलन मानना पड़ता है। गणिका की पुत्री होकर भी, लोकोद्धार करने योग्य सम्मान्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002100
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy