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तमिल जैन साहित्य का इतिहास
जिन्हें स्वमतसमर्थन में पिल्लजी ने प्रयुक्त किया है। यहाँ एक बात पर ध्यान देना उचित है कि जब कि पिल्लजी ने व्याख्याता की टिप्पणीगत बातों को असंगत माना, तब उनका कालनिर्णय भी, जो प्रायः उस टिप्पणी पर ही अवलंबित है, कैसे संगत माना जा सकता है ? और बाद में श्री दीक्षितर् जी ने अकाट्य प्रमाणों से यह साबित कर दिया कि मदुरै का अग्निकांड दूसरी शती में ही हुआ था। काव्य की अन्य बातों और पहलुओं पर तटस्थतापूर्वक विचार किया जाए तो दीक्षित जी का निर्णय ही संगत प्रतीत होता है।
कुछ विद्वानों का मत है कि 'जीवक चिन्तामणि' पेरुं कथै' (बृहत्कथा) आदि काव्यग्रन्थों के निर्माणकाल में ही 'शिलप्पधिकारम्' की भी रचना हुई होगी। शैवसंत साहित्य तेवारम् के समय में संस्कृत और तमिल का साहित्यिक समन्वय प्रारंभ हो चुका था; अतः संभव है कि तत्कालीन विद्वानों तथा कवियों को संस्कृत काव्यशैली का अनुकरण कर अपनी भाषा में भी काव्यग्रन्थ रचने की इच्छा एवं प्रेरणा हुई हो।
_ 'काप्पियम्' ( काव्य ) शब्द का प्रयोग शिलप्पधिकारम् में नहीं मिलता है। किन्तु विश्व-भर में आदिकालीन महान् ग्रंथों को काव्य या महाकाव्य ही कहा गया है। होमर का ग्रीक भाषा में रचित ग्रन्थ, वाल्मीकि का संस्कृत रामायण ग्रंथ आदि महाकाव्य 'आदिकाव्य' नाम से विख्यात हैं ।
तमिल साहित्य में संस्कृत भाषा तथा साहित्य का प्रभाव 'अरनानूरु', 'पूरनानूरु' आदि विशिष्ट ग्रन्थों में नहीं के बराबर है । परवर्ती जैन तथा बौद्ध आचार्यों ने संस्कृत का सम्मिश्रण लोकभाषा और साहित्यिक भाषा में अधिक किया। ई० पू० तीसरी शती के गुहावर्ती शिलालेखों से इसके पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं । साम्प्रदायिक एवं भक्तिपरक ग्रंथों में संस्कृत शब्दों की प्रचुरता सहज है। इसलिए शिलप्पधिकारम् में धर्म तथा देवता संबंधी वर्णनों में संस्कृत के तत्सम-तद्भव शब्द मिलते हैं। मुख्यतया अर्हत् भगवान् की स्तुति वर्णन में पूरी नामावली ही दे दी गयी है।
तत्कालीन तमिल विद्वान् संस्कृत ग्रंथों के अध्ययन में रुचि रखते थे और सीधे संस्कृत न जाननेवाले भी अनूदित और आधारित तमिल ग्रंथों द्वारा भी अपनी ज्ञानपिपासा शांत कर लेते थे। इसीलिए मयमत, करवटमत एवं भरत के नाट्यशास्त्र आदि से भलीभांति परिचित थे। इसके अतिरिक्त उस
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