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काप्पियम्-१
१५१ अधिकांश समालोचक इस महाकाव्य को 'नाटककाप्पियम्' ( नाट्यकाव्य ) कहते हैं। इसकी तीसों गाथाएँ ( कविताएँ ) संघकालीन फुटकर कविताओं की तरह अपने में स्वतन्त्र एवं पूर्ण हैं । कथावस्तु एक होने के कारण एक गाथा से दूसरी गाथा का क्रमिक संबंध बना हुआ है, जो संघकालीन कविताओं में अलभ्य है। इसीलिए इस ग्रन्थ को संघसाहित्यधारा का नूतन विकसित प्रतीक कहा जाता है। संघकालीन कविताओं में वीरगाथाओं एवं प्रशस्तियों के साथ-साथ मानवजीवन के साधारण पर पवित्र या प्रशंसनीय पहलुओं का स्वाभाविक चित्रण भी पर्याप्त मात्रा में है। यह काव्य भी मानव-जीवन की महत्ता तथा पवित्रता का पूर्णतया समर्थक है। इसमें कवि आत्म-विभोर होकर अपनी अनुभूतियों का जो सजीव चित्रण करता है, वह भी संघ साहित्य के प्रभाव का परिणाम है। फिर भी कवि की मौलिक प्रतिभा का चमत्कार पदे-पदे झलकता है। इसलिए कह सकते हैं कि यह महाकाव्य संघकाल के पर्यावसान के समय की अथवा उसके पश्चात् की रचना है। इस काव्य में पल्लवों का संकेत तक नहीं है, इसलिए इतना तो निश्चित ही है कि पल्लवों के पूर्व ही यह काव्यरत्न निर्मित हो चुका है।
रचना काल सती कण्ण कि द्वारा मदुरै नगरी को भस्मसात् करने की तिथि के बारे में कविवर ने यह निर्देश किया है, 'आषाढ़ मास के कृष्णपक्ष के शुक्रवार को जब अष्टमी तिथि और कार्तिक नक्षत्र का मिलन होगा, अग्निदेव पाण्ड्य राजधानी मदुरै का विनाश करेंगे और पाण्ड्यनरेश की भी दुर्गति अवश्यंभावी है।'' इस तिथि के विषय में तमिल वाङ्मय तथा ज्योतिष-शास्त्र के प्रकांड विद्वान् स्व० एल० डी० सामि कण्णु पिल्लै के अनुसार वह समय ता० २३ जुलाई ७५६ ई० था। आपने अपने इस निर्णय की पुष्टि के लिए महाकाव्य के सुप्रसिद्ध व्याख्याकार अडियाक्कू नल्लार की टिप्पणियों का सहारा लिया है। किन्तु पिल्लैजी दूसरे स्थलों पर मान्य व्याख्याकार की बातों को असंगत साबित करने में भी नहीं हिचके थे। सुविख्यात इतिहासवेत्ता रामचन्द्र दीक्षितर् जी ने एक अधिकारी खगोल शास्त्री के नाते पर्याप्त अनुसंधान के बाद यह निर्णय प्रकट किया कि मधुरै नगरी ईस्वी दूसरी शती में अनलकवलित हुई और उन्हीं टिप्पणियों को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया
१. दे० शिलप्पधिकारम्, मदुरै काण्डम्, पद्य पंक्ति, १३३-३६.
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