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________________ १५० तमिल जैन साहित्य का इतिहास तब कवि स्वयं श्रेष्ठ जिनधर्मी मालूम होते हैं; जब 'कुरवर्' ( भील जैसे पहाड़ी व्याध लोग ) लोगों के द्वारा किये गये 'मुस्कन्' ( कार्तिकेय ) की स्तुति गाथा का प्रसंग आता है, तो प्रतीत होता है कि कवि स्वयं 'मुरुकन् ' के उपासक हैं । जब 'वेडुवर्' ( काननवासी व्याध ) लोगों द्वारा की गयी कालीदेवी की पूजा का वर्णन आता है, तो संदेह होता है कि यह कवि कालीउपासक तो नहीं है ? और इसी प्रकार ग्वालों के द्वारा गोपाल - कन्हैया ( विष्णु ) की पूजा के उपलक्ष्य में किये गये 'आश्चियर् कुरवै' ( ग्वालिनों का गान सहित सामूहिक नृत्य ) का सजीव वर्णन पढ़कर पाठक अवश्य कविवर को किसी वैष्णव भक्तकवि आळ्वार का प्रतिरूप समझेंगे । प्रत्येक धर्म एवं देवता के वर्णन में कविश्रेष्ठ ने तत्तद् धर्मावलंबी भक्तों की श्रद्धा एवं स्वानुभूति का सजीव दर्शन कराया है। इस प्राचीन महाकाव्य में इतनी उदार भावना का समावेश सचमुच असाधारण महत्त्व की बात है । मंगलाचरण काव्य का प्रारम्भ “तिंगळे पोट दुम् ( चन्द्रमा की वंदना करेंगे... ) से होता है । यही काव्य का मंगलाचरण है । कवि प्रकृतिपूजक अथवा विशिष्ट देवतापूजक भी नहीं है । कवि का उद्देश्य तो चोलनरेश और उनकी राजधानी पुम्पुहारनगरी की प्रशस्ति करना रहा है । परवर्ती व्याख्याकारों ने भी एक स्वर से कवि के इसी आन्तरिक उद्देश्य का समर्थन किया है । कवि यह नहीं चाहते थे किसी भी मतावलंबी की यह धारणा बने कि कवि अमुक मत या सम्प्रदाय का पोषक और प्रचारक है । पात्रों के व्यक्तित्व एवं विशेषताओं का निर्वाह तथा प्रासंगिक रूप में जैनधर्म के तत्त्व का इतने सुन्दर ढंग से वर्णन किया गया है कि वह अन्य धर्मानुयायियों के 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:' का कारम्' में नहीं हुआ, अपितु एक नारी अपने है और देश-विदेश में उसके लिए मंदिर खड़े प्रतिमा प्रतिष्ठित की जाती है । कवि ने नारी के शील, उसकी मर्यादा, महत्ता तथा शक्तिमत्ता का बड़ा ही प्रभावकारी वर्णन किया है । लिए अनुकरणीय उदाहरण है । ही विशद् वर्णन 'शिलप्पधिसतीत्वबल से देवी बन जाती कर दिये जाते हैं और उसकी संघकाल में इसका स्थान 'शिलप्पधिकारम्' में जैन धर्म के तत्त्वों के अतिरिक्त, तमिल के विशिष्ट संगीत, नृत्य और रंगमंच सम्बन्धी कई अद्भुत तत्त्व वर्णित हैं । इसीलिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002100
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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