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काप्पियम्-१
૧૪૨ ही आग में झुलसकर मरा और उसी के कारण पाण्ड्य नरेश की मृत्यु हुई, -साथ ही पति वियोग से तड़पती हुई महारानी भी मर गयी। अंत में, सती कण्णकि देवी के रूप में प्रसन्नता के साथ चेरनरेश चेंगुटुवन् को दर्शन देती है और उस समय उसके पैरों को नूपुर अलंकृत करते हैं। इस प्रकार नूपुर इस काव्य की प्रमुख घटनाओं के लिए केन्द्रवर्ती अवलंब बन गया है। इस कारण इस महाकाव्य का नाम 'शिलम्बु को अधिकृत किया गया काव्य' के अर्थ में ये 'शिलप्पधिकारम्'' पड़ा।
कवि का साम्प्रदायिक पक्ष कविवर इळंगो अडिगळ् जैनसाधु माने जाते हैं। कुछ लोग उन्हें शैव भी मानते हैं। दोनों मान्यताओं के विषय में पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं । इनके बड़े भाई चेरनरेश चेंगुटुवन् शिवभक्त थे। अतः परम्परा से ये भी शैवमतावलम्बी हो सकते हैं । किन्तु काव्यवर्णन में जैन धर्म की जितनी प्रमुखता है, अन्य मतों की नहीं है । काव्य के चरित नायक कोवलन् और उसकी पत्नी कण्णकि दोनों जैन धर्म के अनुयायी थे। उनकी मार्गदर्शिका एवं उपदेशिका कवुन्ति अडिगळ् जैन साध्वी ही थी। इस साध्वी के मुँह से ही नहीं, जैन काव्य की पद्धति के अनुसार, दो चारणों, ऋद्धिधारी (गगनचारी) साधुओं के द्वारा भी जैन धर्म का विशद् वर्णन कवि ने कराया है। अतः इस 'शिलप्पधिकारम्' को जैन काव्य मानना ही संगत होगा।
कवि इळंगो अडिगळ् की विशेषता यही है कि उन्होंने तटस्थ तथा समादर भाव से उस काल में प्रचलित एवं प्रख्यात समस्त धर्मों का प्रामाणिक एवं सुन्दर वर्णन किया है । इसी प्रकार उनके काव्यपात्र भी अपने-अपने धर्म, गुण एवं व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति में सहज-स्वाभाविक हैं, सम्पूर्ण हैं।
यही कारण है कि कोई भी समीक्षक अथवा अन्वेषक इळंगो अडिगळ को किसी विशिष्ट सम्प्रदाय का पक्षपाती साबित नहीं कर पाता । यद्यपि वे जैन धर्मानुयायी थे, तथापि उन्होंने वैष्णव तथा शैव मत का वर्णन इतनी उत्तम रीति से किया है कि पाठक उनके सर्वधर्मसमभाव या समन्वयदृष्टि का आदर किये बिना नहीं रह सकता। जब श्रमणधर्म ( जैन धर्म ) का वर्णन करते हैं,
१. तमिल में 'शिलम्बु' का अर्थ है नूपुर, और संधि नियमानुसार शिलम्बु+आधिकारम् ='शिलप्पधिकारम्' बना।
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