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________________ तमिल जैन साहित्य का इतिहास छोड़कर, पाण्ड्य राजधानी मदुरै की ओर चल पड़े । मार्ग में जैन साध्वी कवुन्ति अडिगळ् के दर्शन हुए। उस सभ्य एवं गुणी दम्पति के प्रति जैनसाध्वी का स्नेह सहज ही उमड़ आया और उन्होंने दोनों को जैनधर्म के सिद्धान्तों का विशद् ज्ञान कराया। वे सती कणकि के सदाचरण तथा उत्तम व्यक्तित्व से इतनी प्रभावित हुई कि उसको 'कप्यु कडवुळ्' ( पातिव्रत्य की देवी ) के नाम से विभूषित करने लगीं। तीनों मदुरा नगरी पहुँचे । मार्ग में ही कोवलन् को अपनी प्रेयसी माधवी के प्रेम की जानकारी एक ब्राह्मण द्वारा मिलती है। मदुरा नगरी की सीमावर्ती ग्वालों की बस्ती में, जैनसाध्वी कवुन्ती अडिगळ् की अभ्यर्थना पर, एक भ्वालिन के अतिथि बनकर कोवलन्-कण्णकि ठहरे । कोवलन् अपनी पत्नी से एक नूपुर लेकर, उसे बेचने के लिए शहर में गया और राजपथ में एक दरबारी स्वर्णकार से उसकी भेंट हुई । वह स्वर्णकार धूर्त और चोर था। उसने पहले ही महारानी का मरम्मत के लिए प्राप्त एक नूपुर हड़प लिया था। संयोग से, ऐन मौके पर कोवलन् अपनी पत्नी के नूपुर के साथ उसके चक्कर में फंस गया। खास बात यह थी कि महारानी का नूपुर और कोवलन् का नूपुर दोनों एक जैसे दीखते थे । इसलिए चालाक स्वर्णकार को अपनी चाल चलने का एक अवसर मिल गया । वह कोवलन् को एक स्थान पर बिठाकर, तुरन्त पाण्ड्य नरेश के पास पहुँचा और कोवलन् को महारानी के नूपुर का चोर बताया। उस समय पाण्ड्यनरेश प्रणयकलह के कारण रूठी हुई अपनी रानी को मनाने के लिए जल्दी जा रहा था। एक तो कामोद्रेक से उसकी मति असंतुलित थी, और दूसरे, महारानी से सम्बन्धित शिकायत थी। अतः तुरन्त राजा ने, “अगर चोर हाथों हाथ मिल ही गया हो, तो उसे मारने के लिए ले आओ !"-यह कहने के बदले क्रोधावेश में यह कह दिया कि "उस चोर को मारकर आओ।" राजाज्ञा शीघ्र ही कार्यान्वित की गयी। यह दुःखद वृत्तान्त कानोकान शहर भर में फैल गया । जब कण्ण कि ने सुना, तो शोकविह्वल हो मूच्छित हो गयी । वह पतिव्रता एक ओर अपने प्राणप्रिय भर्ता के अन्यायपूर्वक मारे जाने से असीम दुःखी थी, तो दूसरी ओर गुणी पतिदेव पर चोरी का मिथ्या अपराध लगने का उसे असह्य सन्ताप भी था। क्रोधाविष्ट कण्णकि मुक्तकेशिनी बन सीधे पांड्य राजा की सभा में गयी और उसे ललकारती हुई बोली, ''मेरे पति देव निर्दोष हैं। मेरे पास इसका प्रमाण है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002100
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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