________________
तमिल जैन साहित्य का इतिहास
जैनाचार्यों ने साधारणतया धार्मिक और नैतिक तत्त्वों के प्रचार के लिए ऐसी बोधक लघुकथाओं की रचना की थी । देश, काल, परिस्थिति आदि के अनुकूल परम्परागत कथाओं में थोड़ा-बहुत परिवर्तन भी वे कर देते थे । ऐसी प्राचीन और नवीन कथाएँ जैनाचार्यों द्वारा ही तमिल को मिलीं, जो पद्य और गद्य दोनों के रूप में रची गयी थीं । खेद की बात है कि अब तक कई गद्यात्मक नीति ग्रन्थ मुद्रित नहीं हुए और वे ताड़पत्रों के रूप में सुरक्षित हैं ।
१४४
'मणिप्रवाल' शैली ( तमिल संस्कृत मिश्रित शैली ) के प्रवर्तन में जैनाचार्यों का महत्त्वपूर्ण योग रहा। इस बात का उल्लेख शैव 'तेवारम्' में इस प्रकार पाया जाता है कि 'जैनों ने शुद्ध मधुर तमिल ( चॅन्तमिळ ) का प्रयोजन नहीं जाना ।' मतलब यह हो सकता है कि संस्कृत को आवश्यकता से अधिक मिलाकर तमिल के विशिष्ट एवं स्वतन्त्र स्वरूप को कलुषित कर दिया
गया ।
जब कि संस्कृत, प्राकृत आदि
जो भी हो, कलनों के शासन काल में भाषाओं के आधिक्य से तमिल की दुर्गति हुई, तब जैनाचार्यों ने ही अपनी साहित्यसेवा तथा धर्मप्रचार द्वारा तमिल की रक्षा की थी । उन्होंने अपने धार्मिक प्रचार का माध्यम बनाया तमिल भाषा को; इसी कारण भाषा तथा धर्मं दोनों का साथ-साथ विकास एवं प्रसार होता गया ।
जैनाचार्यों के विशुद्ध तमिलप्रेम का एक ज्वलन्त उदाहरण है 'तिरुनाथ कुन्ड्रम्' ( श्रीनाथ गिरि ) का शिलालेख । यह शिलालेख तमिल के प्राचीनतम अभिलेखों में से है । इसमें उत्कीर्ण तमिल पंक्तियाँ हैं- “ऐंपदेळ चैनम् नोट्र चंतिर नंति आचिरिकर् निचीतिकै अर्थात् सत्तावन जैन साधुओं की परिचर्या या आराधना (सेवा) करनेवाले चन्द्रनन्दी आचार्य की निचीतिका (?) ।"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org